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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन / सूत्रांक उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर है । कृष्ण-लेश्या की जघन्य-स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर है और उत्कृष्ट स्थिति तेंतीस सागर है।
सूत्र - १४२६
यिक जीवों की लेश्याओं की स्थिति का यह वर्णन किया है। इसके बाद तिर्यच, मनुष्य और देवों की श्या-स्थिति का वर्णन करूँगा ।
सूत्र - १४२७-१४२८
केवल शुक्ल लेश्या को छोड़कर मनुष्य और तिर्यचों की जितनी भी लेश्याएँ हैं, उन सब की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त है। शुक्ल लेश्या की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त्त है और उत्कृष्ट स्थिति नौ वर्ष न्यून एक करोड़ पूर्व है।
सूत्र १४२९
मनुष्य और तिर्यंचों की लेश्याओं की स्थिति का यह वर्णन है । इससे आगे देवों की लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूँगा ।
सूत्र - १४३०- १४३२
कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग है । कृष्ण लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक नील लेश्या की जघन्य स्थिति, और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक है।
नील लेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति है, और पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक उत्कृष्ट है ।
सूत्र - १४३३
इससे आगे भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की तेजोलेश्या की स्थिति का निरूपण
करूँगा ।
सूत्र- १४३४- २४३५
तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति एक पल्योपम है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागर है। तेजोलेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग अधिक दो सागर है।
सूत्र - १४३६- १४३७
तेजोलेश्या की जो उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक पद्मलेश्या की जघन्य स्थिति है और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त्त अधिक दस सागर है जो पद्म लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति है, उससे एक समय अधिक शुक्ल । लेश्या की जघन्य स्थिति है, और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त्त अधिक तेंतीस सागर है ।
सूत्र - १४३८-१४३९
कृष्ण, नील और कापोत- ये तीनों अधर्म लेश्याएँ हैं । इन तीनों से जीव अनेक बार दुर्गति को प्राप्त होता है तेजो-लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ललेश्या - ये तीनों धर्म लेश्याएँ हैं । इन तीनों से जीव अनेक बार सुगति को प्राप्त होता है ।
सूत्र
१४४०-२४४२
प्रथम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता । अन्तिम समय में परिणत सभी लेश्याओं से कोई भी जीव दूसरे भव में उत्पन्न नहीं होता । लेश्याओं की परिणति होने पर अन्तर् मुहूर्त्त व्यतीत हो जाता है और जब अन्तर्मुहूर्त्त शेष रहता है, उस समय जीव परलोक में जाते हैं ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद"
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