________________
आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक शरीर को छोड़कर निरन्तर वायु के शरीर में ही पैदा होना, कायस्थिति है । वायु के शरीर को छोड़कर पुनः वायु के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है। सूत्र-१५८९
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वायुकाय के हजारों भेद होते हैं । सूत्र-१५९०
उदार त्रसों के चार भेद हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । सूत्र - १५९१-१५९४
द्वीन्द्रिय जीव के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेदों को मुझसे सुनो । कृमि, सौमंगल, अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंक, शंखनक-पल्लोय, अणुल्लक, वराटक, जौक, जालक और चन्दनिया-इत्यादि अनेक प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव हैं । वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। सूत्र - १५९५-१५९८
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट बारह वर्ष की और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है । उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । द्वीन्द्रिय के शरीर को न छोड़कर निरंतर द्वीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना, कायस्थिति है । द्वीन्द्रिय के शरीर को छोड़कर पुनः द्वीन्द्रिय शरीर में उत्पन्न होने में जो अंतर है, वह जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र - १५९९
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद होते हैं। सूत्र-१६००-१६०३
त्रीन्द्रिय जीवों के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेदों को मुझसे सुनो । कुंथु, चींटी, खटमल, मकड़ी, दीमक, तृणाहारक, घुम, मालुक, पत्राहारक-मिंजक, तिन्दुक, त्रपुषमिंजक, शतावरी, कान-खजूरा, इन्द्रकायिक-इन्द्रगोपक इत्यादि त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के हैं । वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं। सूत्र- १६०४-१६०७
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट उन पचास दिनों की और जघन्य अन्तर्मुहर्त की है । उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहुर्त की है । त्रीन्द्रिय शरीर को न छोड़कर, निरंतर त्रीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना कायस्थिति है । त्रीन्द्रिय शरीर को छोड़कर पुनः त्रीन्द्रिय के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र-१६०८
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। सूत्र-१६०९-१६१३
चतुरिन्द्रिय जीव के दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेद तुम मुझसे सुनो । अन्धिका, पोतिका, मक्षिका, मशक मच्छर, भ्रमर, कीट, पतंग, ढिंकुण, कुंकुण-कुक्कुड, शृंगिरीटी, नन्दावर्त, बिच्छू, डोल, भंगरीटक, विरली, अक्षिवेधक-अक्षिल, मागध, अक्षिरोडक, विचित्र, चित्र-पत्रक, ओहिंजलिया, जलकारी, नीचक, तन्तवकइत्यादि चतुरिन्द्रिय के अनेक प्रकार हैं।
वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
Page 123