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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक आसन से बैठकर और हाथ जोड़कर पूछे । सूत्र - २३
विनयी शिष्य के द्वारा इस प्रकार विनीत स्वभाव से पूछने पर गुरु सूत्र, अर्थ और तदुभय-दोनों का यथाश्रुत निरूपण करे। सूत्र - २४
भिक्षु असत्य का परिहार करे, निश्चयात्मक भाषा न बोले । भाषा के अन्य परिहास एवं संशय आदि दोषों को भी छोड़े । माया का सदा परित्याग करे । सूत्र - २५
किसी के पूछने पर भी अपने, दूसरों के अथवा दोनों के लिए सावध भाषा न बोले, निरर्थक न बोले, मर्मभेदक वचन न कहे। सूत्र - २६
लहार की शाला, घरों, घरों की बीच की संधियों और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ खडा न रहे, न बात करे। सूत्र- २७, २८
प्रिय अथवा कठोर शब्दों से आचार्य मुझ पर जो अनुशासन करते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है' -ऐसा विचार कर प्रयत्नपूर्वक उनका अनुशासन स्वीकार करे।
आचार्य का प्रसंगोचित कोमल या कठोर अनुशासन दुष्कृत का निवारक है । उस अनुशासन को बुद्धिमान शिष्य हितकर मानता है । असाधु के लिए वही अनुशासन द्वेष का कारण बनता है। सूत्र - २९
भयमुक्त, मेधावी प्रबुद्ध शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकर मानते हैं । किन्तु वही क्षमा एवं चित्तविशुद्धि करनेवाला गुरु का अनुशासन मूरों के लिए द्वेष का निमित्त होता है । सूत्र-३०
शिष्य ऐसे आसन पर बैठे, जो गुरु के आसन से नीचा हो, जिस से कोई आवाझ न निकलती हो, स्थिर हो। आसन से बार-बार न उठे। प्रयोजन होने पर भी कम ही उठे, स्थिर एवं शान्त होकर बैठे। सूत्र-३१
भिक्षु समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर लौटे । असमय में कोई कार्य न करे । समय पर ही सब कार्य करे। सूत्र - ३२
भिक्षा के लिए गया हुआ भिक्षु, खाने के लिए उपविष्ट लोगों की पंक्ति में न खड़ा रहे । मुनि की मर्यादा के अनुरूप एषणा करके गृहस्थ के द्वारा दिया हुआ आहार स्वीकार करे और शास्त्रोक्त काल में आवश्यकतापूर्तिमात्र परिमित भोजन करे। सूत्र-३३
यदि पहले से ही अन्य भिक्षु गृहस्थ के द्वार पर खड़े हों तो उनसे अतिदूर या अतिसमीप खड़ा न रहे और न देने वाले गृहस्थों की दृष्टि के सामने ही रहे, किन्तु एकान्त में अकेला खड़ा रहे । उपस्थित भिक्षुओं को लांघ कर घर में भोजन लेने को न जाए । सूत्र - ३४
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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