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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-६-क्षुल्लकनिर्ग्रन्थीय सूत्र-१६१-१६२
जितने अविद्यावान् हैं, वे सब दुःख के उत्पादक हैं । वे विवेकमूढ अनन्त संसार में बार-बार लुप्त होते हैं । इसलिए पण्डित पुरुष अनेकविध बन्धनों की एवं जातिपथों की समीक्षा करके स्वयं सत्य की खोज करे और विश्व के सब प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव रखे । सूत्र - १६३-१६४
अपने ही कृत कर्मों से लुप्त मेरी रक्षा करने में माता-पिता, पुत्रवधू, भाई, पत्नी तथा औरस पुत्र समर्थ नहीं हैं । सम्यक् द्रष्टा साधक अपनी स्वतंत्र बुद्धि से इस अर्थ की सत्यता को देखे । आसक्ति तथा स्नेह का छेदन करे । किसी के पूर्व परिचय की भी अभिलाषा न करे।
सूत्र-१६५
गौ, बैल, घोड़ा, मणि, कुण्डल, पशु, दास और अन्य सहयोगी पुरुष-इन सबका परित्याग करने वाला साधक परलोक में कामरूपी देव होगा। सूत्र-१६६
___ कर्मों से दुःख पाते हुए प्राणी को स्थावर-जंगम संपत्ति, धन, धान्य और गृहोपकरण भी दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते। सूत्र - १६७
सबको सब तरह से सुख प्रिय है, सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है। यह जानकर भय और वैर से उपरत साधक किसी भी प्राणी की हिंसा न करे । सूत्र - १६८
अदत्तादान नरक है, यह जानकर बिना दिया हुआ एक तिनका भी मुनि न ले । असंयम के प्रति जुगुप्सा रखनेवाला मुनि अपने पात्र में दिया हुआ ही भोजन करे । सूत्र-१६९
इस संसार में कुछ लोग मानते हैं कि-'पापों का परित्याग किए बिना ही केवल तत्त्वज्ञान को जानने-भर से ही जीव सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । सूत्र- १७०
जो बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्तों की स्थापना तो करते हैं, कहते बहुत हैं, किन्तु करते कुछ नहीं हैं, वे ज्ञानवादी केवल वाग् वीर्य से अपने को आश्वस्त करते रहते हैं। सूत्र - १७१
विविध भाषाएँ रक्षा नहीं करती हैं, विद्याओं का अनुशासन भी कहाँ सुरक्षा देता है ? जो इन्हें संरक्षक मानते हैं, वे अपने आपको पण्डित माननेवाले अज्ञानी जीव पाप कर्मों में मग्न हैं, डूबे हुए हैं। सूत्र - १७२
जो मन, वचन और काया से शरीर में, शरीर के वर्ण और रूप में सर्वथा आसक्त हैं, वे सभी अपने लिए दुःख उत्पन्न करते हैं। सूत्र- १७३
उन्होंने इस अनन्त संसार में लम्बे मार्ग को स्वीकार किया है । इसलिए सब ओर देख-भालकर साधक अप्रमत्त भाव से विचरण करे ।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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