Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - १६१४-१६१७
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि-अनंत और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट छह मास की और जघन्य अन्तर्मुहर्त की है। उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यातकाल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । चतु-रिन्द्रिय के शरीर को न छोड़कर निरंतर चतुरिन्द्रिय के शरीर में ही पैदा होते रहना, कायस्थिति है । चतुरिन्द्रिय शरीर को छोड़कर पुनः चतुरिन्द्रिय शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र-१६१८
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। सूत्र-१६१९
पंचेन्द्रिय जीव के चार भेद हैं-नैरयिक, तिर्यंच, मनुष्य और देव । सूत्र-१६२०-१६२१
नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं-रत्नाभा, शर्कराभा, वालुकाभा, पंकभा, धूमाभा, तमःप्रभा और तमस्तमाइस प्रकार सात पृथ्वियों में उत्पन्न होने वाले नैरयिक सात प्रकार के हैं। सूत्र - १६२२-१६२३
वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से नैरयिक जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा। वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं। और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त है। सूत्र - १६२४-१६३०
___ पहली पृथ्वी में नैरयिक जीवों की आयु-स्थिति जघन्य दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट एक सागरोपम की दूसरी पृथ्वी में उत्कृष्ट तीन सागरोपम की और जघन्य एक सागरोपम की तीसरी पृथ्वी में उत्कृष्ट सात सागरोपम और जघन्य तीन सागरोपम। चौथी पृथ्वी उत्कृष्ट दस सागरोपम और जघन्य सात सागरोपम ।
पाँचवीं पृथ्वी में उत्कृष्ट सतरह सागरोपम और जघन्य दस सागरोपम है । छठी पृथ्वी में उत्कृष्ट बाईस सागरोपम और जघन्य सतरह सागरोपम हैं । सातवीं पृथ्वी में नैरयिक जीवों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट तेंतीस सागरोपम और जघन्य बाईस सागरोपम हैं। सूत्र - १६३१-१६३२
नैरयिक जीवों की जो आयु-स्थिति है, वही उनकी जघन्य और उत्कृष्ट कायस्थिति है । नैरयिक शरीर को छोड़कर पुनः नैरयिक शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्तकाल का है। सूत्र- १६३३
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। सूत्र - १६३४-१६३५
पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्च जीव के दो भेद हैं-सम्मूर्छिम-तिर्यञ्च और गर्भजतिर्यञ्च । इन दोनों के पुनः जलचर, स्थलचर और खेचर-ये तीन-तीन भेद हैं । उनको तुम मुझसे सुनो। सूत्र- १६३६-१६४१
जलचर पाँच प्रकार के हैं-मत्स्य, कच्छप, ग्राह, मकर और सुंसुमार | वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से उनके कालविभाग का कथन करूँगा । वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि-अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादिसान्त हैं । जलचरों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । जलचरों की काय-स्थिति उत्कृष्ट एक करोड़ पूर्व की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । जलचर के शरीर को छोड़कर पुनः जलचर के शरीर में उत्पन्न होने में अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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