Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 108
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन / सूत्रांक इस प्रकार भाव में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब और कितना सुख होगा ? जिसे पाने के लिए दुःख उठा है । उसके उपभोग में भी क्लेश और दुःख ही होता है । सूत्र - १३४४ इसी प्रकार जो भाव के प्रति द्वेष करता है, वह उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेष-युक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं । सूत्र - १३४५ भाव में विरक्त मनुष्य शोक-रहित होता है वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है, जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से । सूत्र- १३४६ इस प्रकार रागी मनुष्य के लिए इन्द्रिय और मन के जो विषय दुःख के हेतु हैं, वे ही वीतराग के लिए कभी भी किंचित् मात्र भी दुःख के कारण नहीं होते हैं। सूत्र - १३४७ I काम-भोग न समता-समभाव लाते हैं, और न विकृति लाते हैं । जो उनके प्रति द्वेष और ममत्व रखता है, वह उनमें मोह के कारण विकृति को प्राप्त होता है । सूत्र - १३४८- १३४९ क्रोध, मान, माया, लोभ, जुगुप्सा, अरति, रति, हास्य, भय, शोक, पुरुषवेद, स्त्री वेद, नपुंसक वेद तथा हर्ष विषाद आदि विविध भावों को अनेक प्रकार के विकारों को, उनसे उत्पन्न अन्य अनेक कुपरिणामों को वह प्राप्त होता है, जो कामगुणों में आसक्त है । और वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय भी होता है । सूत्र - १३५० शरीर की सेवारूप सहायता आदि की लिप्सा से कल्पयोग्य शिष्य की भी इच्छा न करे । दीक्षित होने के बाद अनुतप्त होकर तप के प्रभाव की इच्छा न करे इन्द्रियरूपी चोरों के वशीभूत जीव अनेक प्रकार के अपरिमित विकारों को प्राप्त करता है। I सूत्र - १३५१ विकारों के होने के बाद मोहरूपी महासागर में डुबाने के लिए विषयासेवन एवं हिंसादि अनेक प्रयोजन उपस्थित होते हैं तब वह सुखाभिलाषी रागी व्यक्ति दुःख से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करता है। सूत्र - १३५२ इन्द्रियों के जितने भी शब्दादि विषय हैं, वे सभी विरक्त व्यक्ति के मन में मनोज्ञता अथवा अमनोज्ञता उत्पन्न नहीं करते हैं । सूत्र - १३५३ " अपने ही संकल्प-विकल्प सब दोषों के कारण हैं, इन्द्रियों के विषय नहीं। ऐसा जो संकल्प करता है, उसके मन में समता जागृत होती है और उससे उसकी काम-गुणों की तुष्णा क्षीण होती है । सूत्र १३५४ वह कृतकृत्य वीतराग आत्मा क्षणभर में ज्ञानावरण का क्षय करता है । दर्शन के आवरणों को हटाता है और अन्तराय कर्म को दूर करता है । सूत्र - १३५५ उसके बाद वह सब जानता है और देखता है, तथा मोह और अन्तराय से रहित होता है । निराश्रव और मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 108

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