Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र- १४०५-१४०६
जो ईर्ष्यालु है, अमर्ष है, अतपस्वी है, अज्ञानी है, मायावी है, लज्जारहित है, विषयासक्त है, द्वेषी है, धूर्त है, प्रमादी है, रस-लोलुप है, सुख का गवेषक है-जो आरम्भ से अविरत है, क्षुद्र है, दुःसाहसी है-इन योगों से युक्त मनुष्य नीललेश्या में पविवत होता है। सूत्र - १४०७-१४०८
जो मनुष्य वक्र है, आचार से टेढ़ा है, कपट करता है, सरलता से रहित है, प्रति-कुञ्चक है-अपने दोषों को छुपाता है, औपधिक है-सर्वत्र छद्म का प्रयोग करता है । मिथ्यादृष्टि है, अनार्य है-उत्प्रासक है-दुष्ट वचन बोलता है, चोर है, मत्सरी है, इन सभी योगों से युक्त वह कापोत लेश्या में परिणत होता है। सूत्र-१४०९-१४१०
जो नम्र है, अचपल है, माया से रहित है, अकुतूहल है, विनय करने में निपुण है, दान्त है, योगवान् है, उपधान करनेवाला है । प्रियधर्मी है, दृढधर्मी है, पाप-भीरु है, हितैषी है-इन सभी योगों से युक्त वह तेजोलेश्या में परिणत होता है। सूत्र - १४११-१४१२
क्रोध, मान, माया और लोभ जिसके अत्यन्त अल्प हैं, जो प्रशान्तचित्त है, अपनी आत्मा का दमन करता है, योगवान है, उपधान करनेवाला है-जो मित-भाषी है, उपशान्त है, जितेन्द्रिय है-इन सभी योगों से युक्त वह पद्म लेश्या में परिणत होता है। सूत्र - १४१३-१४१४
आर्त और रौद्र ध्यानों को छोड़कर जो धर्म और शुक्लध्यान में लीन है, जो प्रशान्त-चित्त और दान्त है, पाँच समितियों से समित और तीन गुप्तियों से गुप्त है-सराग हो या वीतराग, किन्तु जो उपशान्त है, जितेन्द्रिय हैइन सभी योगों से युक्त वह शुक्ल लेश्या में परिणत होता है। सूत्र - १४१५
असंख्य अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी काल के जितने समय होते हैं, असंख्य योजन प्रमाण लोक के जितने आकाश-प्रदेश होते हैं, उतने ही लेश्याओं के स्थान होते हैं। सूत्र - १४१६-१४२१
कृष्ण-लेश्या की जघन्य स्थिति मुहूर्त्तार्ध है और उत्कृष्ट स्थिति एक मुहूर्त्त-अधिक तेंतीस सागर है । नील लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहर्त्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दस सागर है।
कापोत लेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर है।
तेजोलेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक दो सागर है पद्मलेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट एक मुहूर्त्त-अधिक दस सागर है।
शुक्ललेश्या की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट मुहूर्त्त-अधिक तेंतीस सागर है। सूत्र-१४२२
गति की अपेक्षा के बिना यह लेश्याओं की ओघ-सामान्य स्थिति है । अब चार गतियों की अपेक्षा से लेश्याओं की स्थिति का वर्णन करूँगा।
सूत्र-१४२३-१४२५
कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार-वर्ष है और उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर है । नील लेश्या की जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग अधिक तीन सागर है और
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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