Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 116
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३५-अनगारमार्गगति सूत्र-१४४४ __मुझ से ज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट मार्ग को एकाग्र मन से सुनो, जिसका आचरण कर भिक्षु दुःखों का अन्त करता है। सूत्र - १४४५ गृहवास का परित्याग कर प्रव्रजित हुआ मुनि, इन संगों को जाने, जिनमें मनुष्य आसक्त होते हैं। सूत्र - १४४६ संयत भिक्षु हिंसा, झूठ, चोरी, अब्रह्मचर्य, इच्छा-काम और लोभ से दूर रहे। सूत्र - १४४७-१४४८ मनोहर चित्रों से युक्त, माल्य और धूप से सुवासित, किवाड़ों तथा सफेद चंदोवा से युक्त-ऐसे चित्ताकर्षक स्थान की मन से भी इच्छा न करे । काम-राग को बढ़ाने वाले इस प्रकार के उपाश्रय में इन्द्रियों का निरोध करना भिक्षु के लिए दुष्कर है। सूत्र-१४४९-१४५० अतः एकाकी भिक्षु श्मशान में, शून्य गृह में, वृक्ष के नीचे तथा परकृत एकान्त स्थान में रहने की अभिरुचि रखे । परम संयत भिक्षु प्रासुक, अनावाध, स्त्रियों के उपद्रव से रहित स्थान में रहने का संकल्प करे। सूत्र - १४५१-१४५२ भिक्षु न स्वयं घर बनाए और न दूसरों से बनवाए । चूँकि गृहकर्म के समारंभ में प्राणियों का वध देखा जाता है । त्रस और स्थावर तथा सूक्ष्म और बादर जीवों का वध होता है, अतः संयत भिक्षु गृह-कर्म के समारंभ का परित्याग करे। सूत्र-१४५३-१४५४ इसी प्रकार भक्त-पान पकाने और पकवाने में हिंसा होती है। अतः प्राण और भूत जीवों की दया के लिए न स्वयं पकाए न दूसरे से पकवाए । भक्त और पान के पकाने में जल, धान्य, पृथ्वी और काष्ठ के आश्रित जीवों का वध होता है-अतः भिक्षु न पकवाए। सूत्र-१४५५ अग्नि के समान दूसरा शस्त्र नहीं है, वह सभी ओर से प्राणिनाशक तीक्ष्ण धार से युक्त है, बहुत अधिक प्राणियों की विनाशक है, अतः भिक्षु अग्नि न जलाए । सूत्र - १४५६-१४५८ क्रय-विक्रय से विरक्त भिक्षु सुवर्ण और मिट्टी को समान समझनेवाला है, अतः वह सोने और चाँदी की मन से भी इच्छा न करे । वस्तु को खरीदने वाला क्रयिक होता है और बेचने वाला वणिक् अतः क्रय-विक्रय में प्रवृत्त 'साधु' नहीं है। भिक्षावृत्ति से ही भिक्षु को भिक्षा करनी चाहिए, क्रय-विक्रय से नहीं । क्रय-विक्रय महान् दोष है । भिक्षावृत्ति सुखावह है। सूत्र-१४५९-१४६० मुनि श्रुत के अनुसार अनिन्दित और सामुदायिक उञ्छ की एषणा करे । वह लाभ और अलाभ में सन्तुष्ट रहकर भिक्षा -चर्या करे । अलोलुप, रस में अनासक्त, रसनेन्द्रिय का विजेता, अमूर्च्छित महामुनि यापनार्थ-जीवननिर्वाह के लिए ही खाए, रस के लिए नहीं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 116

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