Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-१३२९
झूठ बोलने के पहले, उसके बाद और बोलने के समय में भी वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःख रूप है । इस प्रकार रूप में अतृप्त होकर वह चोरी करने वाला दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। सूत्र - १३३०
इस प्रकार स्पर्श में अनुरक्त पुरुष को कहाँ, कब, कितना सुख होगा? जिसे पाने के लिए दुःख उठाये जाता है, उसके उपभोग में भी क्लेश और दःख ही होता है। सूत्र- १३३१
इसी प्रकार जो स्पर्श के प्रति द्वेष करता है, वह भी उत्तरोत्तर अनेक दुःखों की परम्परा को प्राप्त होता है। द्वेषयुक्त चित्त से जिन कर्मों का उपार्जन करता है, वे ही विपाक के समय में दुःख के कारण बनते हैं। सूत्र-१३३२
स्पर्श में विरक्त मनुष्य शोकरहित होता है । वह संसार में रहता हुआ भी लिप्त नहीं होता है । जैसे जलाशय में कमल का पत्ता जल से । सूत्र-१३३३-१३३४
मन का विषय भाव है । जो भाव राग में कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं और जो भाव द्वेष का कारण होता है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं । मन भाव का ग्राहक है । भाव मन का ग्राह्य है । जो राग का कारण है, उसे मनोज्ञ कहते हैं। और जो द्वेष का कारण है, उसे अमनोज्ञ कहते हैं। सूत्र - १३३५-१३३६
जो मनोज्ञ भावों में तीव्र रूप से आसक्त है, वह अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। जैसे हथिनी के प्रति आकृष्ट, काम गुणों में आसक्त रागातुर हाथी विनाश को प्राप्त होता है।
जो अमनोज्ञ भाव के प्रति तीव्ररूप से द्वेष करता है, वह उसी क्षण अपने दुर्दान्त द्वेष से दुःखी होता है। इसमें भाव का कोई अपराध नहीं है। सूत्र-१३३७
जो मनोज्ञ भाव में एकान्त आसक्त होता है, और अमनोज्ञ में द्वेष करता है, वह अज्ञानी दुःख की पीड़ा को प्राप्त होता है। विरक्त मुनि उनमें लिप्त नहीं होता । सूत्र - १३३८-१३३९
भाव की आशा का अनुगामी व्यक्ति अनेक रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला क्लिष्ट अज्ञानी जीव विविध प्रकार से उन्हें परिताप देता है, पीड़ा पहुंचाता है। भाव में अनुरक्त और ममत्व के कारण भाव के उत्पादन में, संरक्षण में, सन्नियोग में तथा व्यय और वियोग में उसे सुख कहाँ? उसे उपभोगकाल में भी तृप्ति नहीं मिलती है। सूत्र - १३४०-१३४१
भाव में अतृप्त तथा परिग्रह में आसक्त और उपसक्त व्यक्ति संतोष को प्राप्त नहीं होता । वह असंतोष के दोष से दुःखी तथा लोभ से व्याकुल होकर दूसरों की वस्तु चुराता है । दूसरों की वस्तुओं का अपहरण करता है । लोभ के दोष से उसका कपट और झूठ बढ़ाता है । कपट और झूठ से भी वह दुःख से मुक्त नहीं हो पाता है। सूत्र - १३४२
झूठ बोलने के पहले, उसके बाद, और बोलने के समय वह दुःखी होता है । उसका अन्त भी दुःखरूप है। इस प्रकार भाव में अतृप्त होकर वह चोरी करता है, दुःखी और आश्रयहीन हो जाता है। सूत्र-१३४३ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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