Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 101
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-३२-प्रमादस्थान सूत्र-१२४७ अनन्त अनादि काल से सभी दुःखों और उनके मूल कारणों से मुक्ति का उपाय मैं कह रहा हूँ। उसे पूरे मन से सुनो । वह एकान्त हितरूप है, कल्याण के लिए है। सूत्र - १२४८ सम्पूर्ण ज्ञान के प्रकाशन से, अज्ञान और मोह की परिहार से, राग-द्वेष के पूर्ण क्षय से-जीव एकान्त सुखरूप मोक्ष को प्राप्त करता है । सूत्र- १२४९ गुरुजनों की और वृद्धों की सेवा करना, अज्ञानी लोगों के सम्पर्क से दूर रहना, स्वाध्याय करना, एकान्त में निवास करना, सूत्र और अर्थ का चिन्तन करना, धैर्य रखना, यह दुःखों से मुक्ति का उपाय है। सूत्र-१२५० अगर श्रमण तपस्वी समाधि की आकांक्षा रखता है तो वह परिमित और एषणीय आहार की इच्छा करे, तत्त्वार्थों को जानने में निपुण बुद्धिवाला साथी खोजे तथा स्त्री आदि से विवेक के योग्य-एकान्त घर में निवास करे सूत्र-१२५१ यदि अपने से अधिक गुणों वाला अथवा अपने समान गुणों वाला निपुण साथी न मिले, तो पापों का वर्जन करता हुआ तथा काम-भोगों में अनासक्त रहता हुआ अकेला ही विचरण करे । सूत्र-१२५२ जिस प्रकार अण्डे से बलाका पैदा होती है और बलाका से अण्डा उत्पन्न होता है, उसी प्रकार मोह का जन्म-स्थान तृष्णा है, और तृष्णा का जन्म-स्थान मोह है। सूत्र-१२५३ कर्म के बीज राग और द्वेष हैं । कर्म मोह से उत्पन्न होता है । वह कर्म जन्म और मरण का मूल है और जन्म एवं मरण ही दुःख है। सूत्र - १२५४ उसने दुःख समाप्त कर दिया है, जिसे मोह नहीं है, उसने मोह मिटा दिया है, जिसे तृष्णा नहीं है । उसने तृष्णा नाश कर दिया है, जिसे लोभ नहीं है । उसने लोभ समाप्त कर दिया है, जिसके पास कुछ भी परिग्रह नहीं है सूत्र-१२५५ जो राग, द्वेष और मोह का मूल से उन्मूलन चाहता है, उसे जिन-जिन उपायों को उपयोग में लाना चाहिए, उन्हें मैं क्रमशः कहूँगा। सूत्र-१२५६ रसों का उपयोग प्रकाम नहीं करना । रस प्रायः मनुष्य के लिए दृप्तिकर होते हैं । विषयासक्त मनुष्य को काम वैसे ही उत्पीड़ित करते हैं, जैसे स्वादुफल वाले वृक्ष को पक्षी । सूत्र- १२५७ जैसे प्रचण्ड पवन के साथ प्रचुर ईन्धन वाले वन में लगा दावानल शान्त नहीं होता है, उसी प्रकार प्रकामभोजी की इन्द्रियाग्नि शान्त नहीं होती । ब्रह्मचारी के लिए प्रकाम भोजन कभी भी हितकर नहीं है। सूत्र - १२५८ जो विविक्त शय्यासन से यंत्रित हैं, अल्पभोजी हैं, जितेन्द्रिय हैं, उनके चित्त को रागद्वेष पराजित नहीं कर मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 101

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