Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 62
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ७३१-७३३ ___ महाराज ! युवावस्था में मेरी आँखों में अतुल वेदना उत्पन्न हुई । पार्थिव ! उससे मेरे सारे शरीर में अत्यन्त जलन होती थी । क्रुद्ध शत्रु जैसे शरीर के मर्मस्थानों में तीक्ष्ण शस्त्र घोंप दे और उससे जैसे वेदना हो, वैसे ही मेरी आँखों में भयंकर वेदना हो रही थी । जैसे इन्द्र के वज्रप्रहार से भयंकर वेदना होती है, वैसे ही मेरे त्रिक में, हृदय में और मस्तक में अति दारुण वेदना हो रही थी। सूत्र - ७३४-७३५ विद्या और मंत्र से चिकित्सा करनेवाले, मंत्र तथा औषधियों के विशारद, अद्वितीय शास्त्रकुशल, आयुर्वेद आचार्य मेरी चिकित्सा के लिए उपस्थित थे । उन्होंने मेरे हितार्थ वैद्य, रोगी, औषध और परिचारक-रूप चतुष्पाद चिकित्सा की, किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके । यह मेरी अनाथता है। सूत्र - ७३६-७३७ 'मेरे पिता ने मेरे लिए चिकित्सकों को सर्वोत्तम वस्तुएँ दीं, किन्तु वे मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सके ।' - ''महाराज! मेरी माता पुत्रशोक के दुःख से बहुत पीड़ित रहती थी, किन्तु वह भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी, यह मेरी अनाथता है।" सूत्र - ७३८-७३९ महाराज ! मेरे बड़े और छोटे सभी सगे भाई तथा मेरी बड़ी और छोटी सगी बहनें भी मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी, यह मेरी अनाथता है। सूत्र - ७४०-७४२ महाराज ! मुझ में अनुरक्त और अनुव्रत मेरी पत्नी अश्रुपूर्ण नयनों से मेर उरःस्थल को भिगोती रहती थी। वह बाला मेरे प्रत्यक्ष में या परोक्ष में कभी भी अन्न, पान, स्नान, गन्ध, माल्य और विलेपन का उपभोग नहीं करती थी । वह एक क्षण के लिए भी मुझसे दूर नहीं होती थी । फिर भी वह मुझे दुःख से मुक्त नहीं कर सकी । महाराज! यही मेरी अनाथता है। सूत्र - ७४३-७४५ तब मैंने विचार किया- प्राणी को इस अनन्त संसार में बार-बार असह्य वेदना का अनुभव करना होता है । इस विपुल वेदना से यदि एक बार भी मुक्त हो जाऊं, तो मैं क्षान्त, दान्त और निराम्भ अनगारवृत्ति में प्रव्रजित हो जाऊंगा । इस प्रकार विचार करके मैं सो गया । परिवर्तमान रात के साथ-साथ मेरी वेदना भी क्षीण हो गई। सूत्र - ७४६ तदनन्तर प्रातःकाल में नीरोग होते ही मैं बन्धुजनों को पूछकर क्षान्त, दान्त और निरारम्भ होकर अनगार वृत्ति में प्रव्रजित हो गया। सूत्र - ७४७ तब मैं अपना और दूसरों का, त्रस और स्थावर सभी जीवों का नाथ हो गया। सूत्र-७४८-७४९ मेरी अपनी आत्मा ही वैतरणी नदी है, कूट-शाल्मली वृक्ष है, काम-दुधाधेनु है और नन्दन वन है ।आत्मा ही अपने सुख-दुःख का कर्ता है और विकर्ता-भोक्ता है । सत् प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना मित्र है । और दुष्प्रवृत्ति में स्थित आत्मा ही अपना शत्रु है। सूत्र - ७५० राजन् ! यह एक और भी अनाथता है । शान्त एवं एकाग्रचित्त होकर उसे सुनो ! बहुत से ऐसे कायर व्यक्ति होते हैं, जो निर्ग्रन्थ धर्म को पाकर भी खिन्न हो जाते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 62

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