Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक इसी प्रकार स्वच्छन्द और कुशील साधु भी जिनोत्तम मार्ग की विराधना कर वैसे ही परिताप को प्राप्त होता है, जैसे कि भोगरसोंमें आसक्त होकर निरर्थक शोक करने वाली कुररी पक्षिणी परिताप को प्राप्त होती है।' सूत्र - ७६३-७६४
मेधावी साधक इस सुभाषित को एवं ज्ञान-गुण से युक्त अनुशासन को सुनकर कुशील व्यक्तियों के सब मार्गों को छोड़कर, महान् निर्ग्रन्थों के पथ पर चले ।
चारित्राचार और ज्ञानादि गणों से संपन्न निर्ग्रन्थ निराश्रव होता है। अनुत्तर शुद्ध संयम का पालन कर वह निराश्रव साधक कर्मों का क्षय कर विपुल, उत्तम एवं शाश्वत मोक्ष को प्राप्त करता है। सूत्र - ७६५
इस प्रकार उग्र-दान्त, महान् तपोधन, महा-प्रतिज्ञ, महान्-यशस्वी उस महामुनि ने इस महा-निर्ग्रन्थीय महाश्रुत को महान् विस्तार से कहा। सूत्र - ७६६-७६७
राजा श्रेणिक संतुष्ट हुआ और हाथ जोड़कर बोला-भगवन् ! अनाथ का यथार्थ स्वरूप आपने मुझे ठीक तरह समझाया है। हे महर्षि ! तुम्हारा मनुष्य-जन्म सफल है, उपलब्धियाँ सफल हैं, तुम सच्चे सनाथ और सबान्धव हो, क्योंकि तुम जिनेश्वर के मार्ग में स्थित हो । सूत्र-७६८-७६९
हे संयत ! तुम अनाथों के नाथ हो, सब जीवों के नाथ हो । मैं तुमसे क्षमा चाहता हूँ। मैं तुम से अनुशासित होने की इच्छा रखता हूँ। मैंने तुमसे प्रश्न कर जो ध्यान में विघ्न किया और भोगों के लिए निमन्त्रण दिया, उन सब के लिए मुझे क्षमा करें। सूत्र-७७०
इस प्रकार राजसिंह श्रेणिक राजा अनगार-सिंह मुनि की परम भक्ति से स्तुति कर अन्तःपुर तथा अन्य परिजनों के साथ धर्म में अनुरक्त हो गया। सूत्र-७७१
राजा के रोमकूप आनन्द से उच्छ्वसित-उल्लसित हो रहे थे। वह मुनि की प्रदक्षिणा और सिर से वन्दना करके लौट गया। सूत्र- ७७२
और वह गुणों से समृद्ध, तीन गुप्तियों से गुप्त, तीन दण्डों से विरत, मोहमुक्त मुनि पक्षी की भाँति विप्रमुक्त होकर भूतल पर विहार करने लगे। -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-२० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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