Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 63
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र- ७५१ जो महाव्रतों को स्वीकार कर प्रमाद के कारण उनका सम्यक् पालन नहीं करता है, आत्मा का निग्रह नहीं करता है, रसों में आसक्त है, वह मूल से राग-द्वेष-रूप बन्धनों का उच्छेद नहीं कर सकता है। सूत्र - ७५२ जिसकी ईर्या, भाषा, एषणा और आदान-निक्षेप में और उच्चार-प्रस्रवण के परिष्ठापन में आयुक्तता नहीं है, वह उस मार्ग का अनुगमन नहीं कर सकता, जो वीरयात हैसूत्र - ७५३ जो अहिंसादि व्रतों में अस्थिर है, तप और नियमों से भ्रष्ट है-वह चिर काल तक मुण्डरुचि रहकर और आत्मा को कष्ट देकर भी वह संसार से पार नहीं हो सकता। सूत्र - ७५४ जो पोली मुट्ठी की तरह निस्सार है, खोटे-सिक्के की तरह अप्रमाणित है, वैडूर्य की तरह चमकने वाली तुच्छ काचमणि है, वह जानने वाले परीक्षकों की दृष्टि में मूल्यहीन है। सूत्र - ७५५ जो कुशील का वेष और रजोहरणादि मुनिचिन्ह धारण कर जीविका चलाता है, असंयत होते हुए भी अपने-आप को संयत कहता है, वह चिरकाल तक विनाश को प्राप्त होता है। सूत्र-७५६ पिया हुआ कालकूट-विष, उलटा पकड़ा हुआ शस्त्र, अनियन्त्रित वेताल-जैसे विनाशकारी होता है, वैसे ही विषय-विकारों से युक्त धर्म भी विनाशकारी होता है। सूत्र - ७५७ जो लक्षण और स्वप्न-विद्या का प्रयोग करता है, निमित्त शास्त्रो और कौतुक-कार्य में अत्यन्त आसक्त है, मिथ्या आश्चर्य को उत्पन्न करने वाली कुहेट विद्याओं से-जीविका चलाता है, वह कर्मफल-भोग के समय किसी की शरण नहीं पा सकता। सूत्र-७५८ वह शीलरहित साधु अपने तीव्र अज्ञान के कारण विपरीत-दृष्टि को प्राप्त होता है, फलतः असाधु प्रकृतिवाला वह साधु मुनि-धर्म की विराधना कर सतत दुःख भोगता हुआ नरक और तिर्यंच गति में आवागमन करता रहता है। सूत्र - ७५९ जो औद्देशिक, क्रीत, नियाग आदि के रूप में थोड़ासा-भी अनेषणीय आहार नहीं छोड़ता है, वह अग्नि की भाँति सर्वभक्षी भिक्षु पाप-कर्म करके यहाँ से मरने के बाद दुर्गति में जाता है।'' सूत्र-७६० स्वयं की अपनी दुष्प्रवृत्ति जो अनर्थ करती है, वह गला काटने वाला शत्रु भी नहीं कर पाता है । उक्त तथ्य को संयमहीन मनुष्य मृत्यु के क्षणों में पश्चात्ताप करते हुए जान पाएगा। सूत्र - ७६१ जो उत्तमार्थमें विपरीत दृष्टि रखता है, उसकी श्रामण्य में अभिरुचि व्यर्थ है। उसके लिए न यह लोक है, न परलोक है। दोनों लोक के प्रयोजन से शून्य होने के कारण वह उभय-भ्रष्ट भिक्षु निरन्तर चिन्ता में धुलता जाता है सूत्र - ७६२ पशापOu3 मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 63

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