Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

View full book text
Previous | Next

Page 61
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२०-महानिर्ग्रन्थीय सूत्र - ७१३ सिद्धों एवं संयतों को भावपूर्वक नमस्कार करके मैं मोक्ष और धर्म के स्वरूप का बोध कराने वाली तथ्यपूर्ण अनुशिष्टि-का कथन करता हूँ, उसे सुनो। सूत्र - ७१४-७१५ गज-अश्व तथा मणि-माणिक्य आदि प्रचुर रत्नों से समृद्ध मगध का अधिपति राजा श्रेणिक मण्डिकुक्षि चैत्य-में विहार-यात्रा के लिए नगर से निकला । वह उद्यान विविध प्रकार के वृक्षों एवं लताओं से आकीर्ण था, नाना प्रकार के पक्षियों से परिसेवित था और विविध प्रकार के पुष्पों से भली-भाँति आच्छादित था । विशेष क्या कहे ? वह नन्दनवन के समान था। सूत्र-७१६-७१८ राजा ने उद्यान में वृक्ष के नीचे बैठे हुए एक संयत, समाधि-संपन्न, सुकुमार एवं सुखोचित-साधु को देखा। साधु के अनुपम रूप देखकर राजा को उसके प्रति बहुत ही अधिक अतुलनीय विस्मय हुआ । अहो, क्या वर्ण है ! क्या रूप है ! आर्य की कैसी सौम्यता है ! क्या क्षान्ति है, क्या मुक्ति है ! भोगों के प्रति कैसी असंगता है ! सूत्र - ७१९-७२० मुनि के चरणों में वन्दना और प्रदक्षिणा करने के पश्चात् राजा न अतिदूर, न अति निकट खड़ा रहा और हाथ जोड़कर पूछने लगा-हे आर्य ! तुम अभी युवा हो । फिर भी तुम भोगकाल में दीक्षित हुए हो, श्रामण्य में उपस्थित हुए हो । इसका क्या कारण है, मैं सुनना चाहता हूँ। सूत्र - ७२१ महाराज ! मैं अनाथ हूँ । मेरा कोई नाथ नहीं है । मुझ पर अनुकम्पा रखनेवाला कोई सुहृद् नहीं पा रहा हूँ। सूत्र - ७२२-७२३ यह सुनकर मगधाधिप राजा श्रेणिक जोर से हँसा और बोला-इस प्रकार तुम देखने में ऋद्धि संपन्न-लगते हो, फिर भी तुम्हारा कोई नाथ नहीं है ? भदन्त ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ । हे संयत ! मैं तुम्हारा नाथ होता हूँ । हे संयत ! मित्र और ज्ञातिजनों के साथ भोगों को भोगो । यह मनुष्य-जीवन बहुत दुर्लभ है । सूत्र - ७२४ श्रेणिक ! तुम स्वयं अनाथ हो । मगधाधिप ! जब तुम स्वयं अनाथ हो तो किसी के नाथ कैसे हो सकोगे? सूत्र-७२५-७२७ राजा पहले ही विस्मित हो रहा था, अब तो मुनि से अश्रुतपूर्व वचन सुन कर तो और भी अधिक संभ्रान्त एवं विस्मित हुआ । उसने कहा-मेरे पास अश्व, हाथी, नगर और अन्तःपुर है । मैं मनुष्यजीवन के सभी सुख-भोगों को भोग रहा हूँ | मेरे पास शासन और ऐश्वर्य भी हैं । इस प्रकार प्रधान-श्रेष्ठ सम्पदा, जिसके द्वारा सभी कामभोग मुझे समर्पित होते हैं, मुझे प्राप्त हैं । इस स्थिति में भला मैं कैसे अनाथ हूँ ? आप झूठ न बोलें । सूत्र-७२८-७२९ पृथ्वीपति-नरेश ! तुम 'अनाथ' के अर्थ और परमार्थ को नहीं जानते हो । महाराज ! अव्याक्षिप्त चित्त से मुझे सुनिए की यथार्थ में अनाथ कैसे होता है ? सूत्र - ७३० प्राचीन नगरों में असाधारण सुन्दर कौशाम्बी नगरी है। वहाँ मेरे पिता थे । उन के पास प्रचुर धन का संग्रह था। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 61

Loading...

Page Navigation
1 ... 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129