Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 68
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ८२१-८२३ वासुदेव कृष्ण ने लुप्तकेश एवं जितेन्द्रिय भगवान् को कहा-हे दमीश्वर ! आप अपने अभीष्ट मनोरथ को शीघ्र प्राप्त करो। आप ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षान्ति और मुक्ति के द्वारा आगे बढ़ो ।इस प्रकार बलराम, केशव, दशाह यादव और अन्य बहुत से लोग अरिष्टनेमि को वन्दना कर द्वारकापुरी को लौट आए। सूत्र - ८२४-८२६ भगवान् अरिष्टनेमि की प्रव्रज्या सुनकर राजकन्या राजीमती के हास्य और आनन्द सब समाप्त हो गए। और वह शोकसे मूर्छित हो गई । राजीमती ने सोचा-धिक्कार है मेरे जीवन को । चूँकि मैं अरिष्टनेमि के द्वारा परित्यक्ता हूँ, अतः मेरा प्रव्रजित होना ही श्रेय है । धीर तथा कृतसंकल्प राजीमती ने कूर्च और कंधी से सँवारे हुए भौंरे जैसे काले केशों का अपने हाथों से लुंचन किया । सूत्र - ८२७ वासुदेव ने लुप्त-केशा एवं जितेन्द्रिय राजीमती को कहा-कन्ये ! तू इस घोर संसार-सागर को अति शीघ्र पार कर। सूत्र-८२८ शीलवती एवं बहुश्रुत राजीमती ने प्रव्रजित होकर अपने साथ बहुत से स्वजनों तथा परिजनों को भी प्रव्रजित कराया। सूत्र - ८२९-८३१ वह रैवतक पर्वत पर जा रही थी कि बीच में ही वर्षा से भीग गई। जोर की वर्षा हो रही थी, अन्धकार छाया हुआ था । इस स्थिति में वह गुफा के अन्दर पहुँची । सुखाने के लिए अपने वस्त्रों को फैलाती हुई राजीमती को यथाजात रूप में रथनेमि ने देखा । उसका मन विचलित हो गया । पश्चात् राजीमती ने भी उसको देखा । वहाँ एकान्त में उस संयत को देख कर वह डर गई। भय से काँपती हुई वह अपनी दोनों भुजाओं से शरीर को आवृत कर बैठ गई। सूत्र-८३२-८३४ तब समुद्रविजय के अंगजात उस राजपुत्र ने राजीमती को भयभीत और काँपती हुई देखकर वचन कहाभद्रे ! मैं रथनेमि हूँ । हे सुन्दरी ! हे चारुभाषिणी ! तू मुझे स्वीकार कर । हे सुतनु ! तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी। निश्चित ही मनुष्य -जन्म अत्यन्त दुर्लभ है । आओ, हम भोगों को भोगे । बाद में भुक्तभोगी हम जिनमार्ग में दीक्षत होंगे। सूत्र- ८३५-८३६ संयम के प्रति भग्नोद्योग तथा भोग-वासना से पराजित रथनेमि को देखकर वह सम्भ्रान्त न हुई । उसने वस्त्रों से अपने शरीर को पुनः बँक लिया । नियमों और व्रतों में सुस्थित श्रेष्ठ राजकन्या राजीमती ने जाति, कुल और शील की रक्षा करते हए रथनेमि से कहासूत्र-८३७-८३९ यदि तू रूप से वैश्रमण के समान है, ललित कलाओं से नलकुबर के समान है, तू साक्षात् इन्द्र भी है, तो भी मैं तुझे नहीं चाहती हूँ। (अगन्धन कुल में उत्पन्न हुए सर्प धूम की ध्वजा वाली, प्रज्वलित, भयंकर, दुष्प्रवेश अग्नि में प्रवेश कर जाते हैं, किन्तु वमन किए हुए अपने विष को पुनः पीने की इच्छा नहीं करते हैं ।) हे अयशःकामिन् ! धिक्कार है तुझे कि तू भोगी जीवन के लिए त्यक्त भोगों को पुनः भोगने की इच्छा करता है । इससे तो तेरा मरना श्रेयस्कर है । मैं भोजराजा की पौत्री हूँ और तू अन्धक-वृष्णि का पौत्र है । हम कुल में गन्धन सर्प की तरह बनें । तू निभृत होकर संयम का पालन कर। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 68

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