Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 77
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-२५-यज्ञीय सूत्र - ९६३-९६५ ब्राह्मण कुल में उत्पन्न, महान् यशस्वी जयघोष ब्राह्मण था, जो हिंसक यमरूप यज्ञ में अनुरक्त यायाजी था। वह इन्द्रिय -समह का निग्रह करने वाला, मार्गगामी महामनि हो गए थे। एक दिन ग्रामानग्राम विहार करते हुए वाराणसी पहुँच गए । वाराणसी के बाहर मनोरम उद्यान में प्रासुक शय्या और संस्तारक लेकर ठहर गए । सूत्र - ९६६-९६७ उसी समय पुरी में वेदों का ज्ञाता, विजयघोष नाम का ब्राह्मण यज्ञ कर रहा था । एक मास की तपश्चर्या के पारणा के समय भिक्षा के लिए वह जयघोष मुनि विजयघोष के यज्ञ में उपस्थित हुआ। सूत्र - ९६८-९७० यज्ञकर्ता ब्राह्मण भिक्षा के लिए उपस्थित हुए मुनि को इन्कार करता है- मैं तुम्हें भिक्षा नहीं दूंगा । भिक्षु ! अन्यत्र याचना करो । जो वेदों के ज्ञाता विप्र-ब्राह्मण हैं, यज्ञ करने वाले द्विज हैं और ज्योतिष के अंगों के ज्ञाता हैं एवं धर्मशास्त्रों के पारगामी हैं- अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, भिक्षु ! यह सर्वकामिक एवं सब को अभीष्ट अन्न उन्हीं को देना है। सूत्र - ९७१-९७२ वहाँ इस प्रकार याजक के द्वारा इन्कार किए जाने पर उत्तम अर्थ की खोज करनेवाला वह महामुनि न क्रुद्ध हुए, न प्रसन्न हुए । न अन्न के लिए, न जल के लिए, न जीवन-निर्वाह के लिए, किन्तु उन के विमोक्षण के लिए मुनि ने कहासूत्र - ९७३-९७४ तू वेद के मुख को नहीं जानता है और न यज्ञों को, नक्षत्रों और धर्मों का जो मुख है, उसे ही जानता है । जो अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं, उन्हें भी तू नहीं जानता है। यदि जानता है, तो बता । सूत्र- ९७५-९७७ उसके आक्षेपों का अर्थात उत्तर देने में असमर्थ ब्राह्मण ने अपनी समग्र परिषद के साथ हाथ जोडकर उस महामुनि से पूछा-तुम कहो-वेदों का मुख क्या है ? यज्ञों का, नक्षत्रों का और धर्मों का जो मुख है, उसे भी कहिए । और अपना तथा दूसरों का उद्धार करने में जो समर्थ हैं, वे भी बतलाओ। ____ मुझे यह सब संशय है । हे साधु ! मैं पूछता हूँ, आप बताइए । सूत्र - ९७८-९७९ जयघोष मुनि- वेदों का मुख अग्नि-होत्र है, यज्ञों का मुख यज्ञार्थी है, नक्षत्रों का मुख चन्द्र है और धर्मों का मुख काश्यप (ऋषभदेव) है ।जैसे उत्तम एवं मनोहारी ग्रह आदि हाथ जोड़कर चन्द्र की वन्दना तथा नमस्कार करते हए स्थित है, वैसे ही भगवान ऋषभदेव हैं। सूत्र- ९८० विद्या ब्राह्मण की सम्पदा है, यज्ञवादी इस से अनभिज्ञ हैं, वे बाहरमें स्वाध्याय और तप से वैसे ही आच्छादित हैं, जैसे कि अग्नि राख से ढंकी हई होती है। सूत्र - ९८१ जिसे लोकमें कुशलपुरुषोने ब्राह्मण कहा है, जो अग्नि के समान सदा पूजनीय है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं सूत्र- ९८२ जो प्रिय स्वजनादि के आने पर आसक्त नहीं होता और जाने पर शोक नहीं करता है । जो आर्य-वचन में रमण करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 77 Page 77

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