Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 78
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र - ४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन / सूत्रांक सूत्र - ९८३ कसौटी पर कसे हुए और अग्नि के द्वारा दग्धमल हुए जातरूप-सोने की तरह जो विशुद्ध है, जो राग से, द्वेष से और भय से मुक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । सूत्र - ९८४ जो तपस्वी है, कृश है, दान्त है, जिसका मांस और रक्त अपचित हो गया है। जो सुव्रत है, शांत है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । सूत्र - ९८५ जो त्रस और स्थावर जीवों को सम्यक् प्रकार से जानकर उनकी मन, वचन और काया से हिंसा नहीं करता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र - ९८६ जो क्रोध, हास्य, लोभ अथवा भय से झूठ नहीं बोलता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । सूत्र - ९८७ जो सचित्त या अचित्त, थोड़ा या अधिक अदत्त नहीं लेता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं । सूत्र - ९८८- ९८९ जो देव, मनुष्य और तिर्यञ्च सम्बन्धी मैथुन का मन, वचन और शरीर से सेवन नहीं करता है, जिस प्रकार जल में उत्पन्न हुआ कमल जल से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो कामभोगों से अलिप्त रहता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र - ९९० जो रसादि में लोलुप नहीं है, निर्दोष भिक्षा से जीवन का निर्वाह करता है, गृह त्यागी है, अकिंचन है, गृहस्थों में अनासक्त है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र - ९९१ उस दुःशील को पशुबंध के हेतु सर्व वेद और पाप कर्मों से किए गए यज्ञ बचा नहीं सकते, क्योंकि कर्म बलवान् है। सूत्र - ९९२-९९४ केवल सिर मुँडाने से कोई श्रमण नहीं होता है, ओम् का जप करने से ब्राह्मण नहीं होता है, अरण्य में रहने मुनि नहीं होता है, कुश का बना जीवर पहनने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता है । समभाव से श्रमण होता है । ब्रह्मचर्य से ब्राह्मण होता है। ज्ञान से मुनि होता है । तप से तपस्वी होता है । कर्म से ब्राह्मण होता है। कर्म से क्षत्रिय होता है। कर्म से वैश्य होता है। कर्म से ही शूद्र होता है।" सूत्र - ९९५ अर्हत् ने इन तत्त्वों का प्ररूपण किया है। इनके द्वारा जो साधक स्नातक होता है, सब कर्मों से मुक्त होता है, उसे हम ब्राह्मण कहते हैं। सूत्र - ९९६ इस प्रकार जो गुण-सम्पन्न द्विजोत्तम होते हैं, वे ही अपना और दूसरों का उद्धार करने में समर्थ हैं । सूत्र - ९९७ इस प्रकार संशय मिट जाने पर विजयघोष ब्राह्मण ने महामुनि जयघोष की वाणी को सम्यक्रूप से स्वीकार किया । मुनि दीपरत्नसागर कृत् " (उत्तराध्ययन) आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद" Page 78

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