Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 71
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक धर्मतत्त्व की समीक्षा प्रज्ञा करती है। सूत्र-८७२-८७३ प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजु और जड़ होते हैं । अन्तिम तीर्थंकर के साधु वक्र और जड़ होते हैं । बीच के तीर्थंकरों के साधु ऋजु और प्राज्ञ होते हैं । अतः धर्म दो प्रकार से कहा है । प्रथम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण कर लेना कठिन है । अन्तिम तीर्थंकर के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और उसका पालन करना कठिन है । मध्यवर्ती तीर्थंकरों के मुनियों द्वारा कल्प को यथावत् ग्रहण करना और उसका पालन करना सरल है। सूत्र - ८७४-८७६ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर कर दिया । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उसके विषय में भी मुझे कहें। यह अचेलक धर्म वर्द्धमान ने बताया है, और यह सान्तरोत्तर धर्म महायशस्वी पार्श्व ने प्रतिपादन किया है। एक ही कार्य से प्रवृत्त दोनों में भेद का कारण क्या है ? मेधावी ! लिंग के इन दो प्रकारों में तुम्हें कैसे संशय नहीं होता है ? सूत्र-८७७-८७९ तब गौतम ने कहा-विशिष्ट ज्ञान से अच्छी तरह धर्म के साधनों को जानकर ही उन की अनुमति दी गई है | नाना प्रकार के उपकरणों की परिकल्पना लोगों की प्रतीति के लिए है । संयमयात्रा के निर्वाह के लिए और मैं साधु हूँ,-यथाप्रसंग इसका बोध रहने के लिए ही लोक में लिंग का प्रयोजन है । वास्तव में दोनों तीर्थंकरों का एक ही सिद्धान्त है कि मोक्ष के वास्तविक साधन ज्ञान, दर्शन और चारित्रही हैं। सूत्र - ८८०-८८१ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह तो दूर कर दिया । मेरा एक और भी सन्देह है। गौतम ! उस विषय में भी मुझे कहें । गौतम! अनेक सहस्र शत्रुओं के बीच में तुम खड़े हो । वे तुम्हें जीतना चाहते हैं । तुमने उन्हें कैसे जीता ? सूत्र-८८२ गणधर गौतम- एक को जीतने से पाँच जीत लिए गए और पाँच को जीत लेने से दस जीत लिए गए। दसों को जीतकर मैंने सब शत्रओं को जीत लिया। सूत्र-८८३-८८४ गौतम ! वे शत्रु कौन होते हैं ? केशी ने गौतम को कहा । गौतमने कहा- मुने ! न जीता हुआ अपना आत्मा ही शत्रु है । कषाय और इन्द्रियाँ भी शत्रु हैं । उन्हें जीतकर नीति के अनुसार मैं विचरण करता हूँ। सूत्र-८८५-८८६ गौतम ! तुम्हारी प्रज्ञा श्रेष्ठ है । तुमने मेरा यह सन्देह दूर किया । मेरा एक और भी सन्देह है । गौतम ! उस विषय में भी मुझे कहें । इस संसार में बहुत से जीव पाश से बद्ध हैं । मुने ! तुम बन्धन से मुक्त और लघुभूत होकर कैसे विचरण करते हो ?' सूत्र-८८७ गणधर गौतम-''मुने ! उन बन्धनों को सब प्रकार से काट कर, उपायों से विनष्ट कर मैं बन्धनमुक्त और हलका होकर विचरण करता हूँ।'' सूत्र-८८८ गौतम ! वे बन्धन कौन से हैं ? केशी ने गौतम को पूछा । गौतम ने कहासूत्र-८८९ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 71

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