Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म किए बिना परभव में जाता है, वह व्याधि और रोगों से पीड़ित होता है, दुःखी होता है। सूत्र - ६३४-६३५
जो व्यक्ति पाथेय साथ में लेकर लम्बे मार्ग पर चलता है, वह चलते हुए भूख और प्यास के दुःख से रहित सुखी होता है। इसी प्रकार जो व्यक्ति धर्म करके परभव में जाता है, वह अल्पकर्मा वेदना से रहित सुखी होता है। सूत्र-६३६-६३७
जिस प्रकार घर को आग लगने पर गृहस्वामी मूल्यवान् सार वस्तुओं को निकालता है और मूल्यहीन असार वस्तुओं को छोड़ देता है उसी प्रकार आपकी अनुमति पाकर जरा और मरण से जलते हुए इस लोक में सारभूत अपनी आत्मा को बाहर निकालूँगा ।'' सूत्र - ६३८
माता-पिता ने उसे कहा-पुत्र ! श्रामण्य-अत्यन्त दुष्कर है । भिक्षु को हजारों गुण धारण करने होते हैं । सूत्र-६३९
भिक्षु को जगत् में शत्रु और मित्र के प्रति, सभी जीवों के प्रति समभाव रखना होता है । जीवनपर्यन्त प्राणातिपात से निवत्त होना भी बहुत दुष्कर है । सूत्र- ६४०
सदा अप्रमत्त भाव से मृषावाद का त्याग करना, हर क्षण सावधान रहते हुए हितकारी सत्य बोलना-बहुत कठिन होता है। सूत्र-६४१
दन्तशोधन आदि भी बिना दिए न लेना एवं प्रदत्त वस्तु भी अनवद्य और एषणीय ही लेना अत्यन्त दुष्कर है सूत्र- ६४२
काम-भोगों के रस से परिचित व्यक्ति के लिए अब्रह्मचर्य से विरक्ति और उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का धारण करना बहुत दुष्कर है। सूत्र-६४३
धन-धान्य, प्रेष्यवर्ग, आदि परिग्रह का त्याग तथा सब प्रकार के आरम्भ और ममत्व का त्याग करना बहुत दुष्कर होता है। सूत्र - ६४४
अशन-पानादि चतुर्विध आहार का रात्रि में त्याग करना और कालमर्यादा से बाहर घृतादि संनिधि का संचय न करना अत्यन्त दुष्कर है। सूत्र- ६४५, ६४६
भूख, प्यास, सर्दी, गर्मी, डांस और मच्छरों का कष्ट, आक्रोश वचन, दुःख शय्या-कष्टप्रद स्थान, तृणस्पर्श तथा मैल ताड़ना, तर्जना, वध और बन्धन, भिक्षाचर्या, याचना और अलाभ-इन परीषहों को सहन करना दुष्कर है। सूत्र- ६४७
यह कापोतीवृत्ति समान दोषों से सशंक एवं सतर्क रहने की वृत्ति, दारुण केश-लोच और यह घोर ब्रह्मचर्य का व्रत धारण करना महान् आत्माओं के लिए भी दुष्कर है। सूत्र - ६४८
पुत्र ! तू सुख भोगने के योग्य है, सुकुमार है, सुमज्जित है-अतः श्रामण्य का पालन करने के लिए तू समर्थ नहीं है।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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