Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 36
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-३९१ मुनि-''मेरे मन में न कोई द्वेष पहले था, न अब है, और न आगे होगा । यक्ष सेवा करते हैं, उन्होंने ही कुमारों को प्रताड़ित किया है।' सूत्र - ३९२-३९४ रुद्रदेव-धर्म और अर्थ को यथार्थ रूप से जाननेवाले भूतिप्रज्ञ आप क्रोध न करे । हम सब मिलकर आपके चरणों में आए हैं, शरण ले रहे हैं । महाभाग ! हम आपकी अर्चना करते हैं । अब आप दधि आदि नाना व्यंजनों से मिश्रित शालिचावलों से निष्पन्न भोजन खाइए ।यह हमारा प्रचुर अन्न है। हमारे अनुग्रहार्थ इसे स्वीकार करें। पुरोहित के इस आग्रह पर महान् आत्मा मुनि ने स्वीकृति दी और एक मास की तपश्चर्या के पारणे के लिए आहार-पानी ग्रहण किया। सूत्र-३९५-३९६ देवों ने वहाँ सुगन्धित जल, पुष्प एवं दिव्य धन की वर्षा को और दुन्दुभियाँ बजाईं, आकाश में अहो दानम् ' का घोष किया । प्रत्यक्ष में तप की ही विशेषता-महिमा देखी जा रही है, जाति की नहीं । जिसकी ऐसी महान् चमत्कारी ऋद्धि है, वह हरिकेश मुनि-चाण्डाल पुत्र है। सूत्र - ३९७-३९८ मुनि-ब्राह्मणो ! अग्नि का समारम्भ करते हुए क्या तुम बाहर से-जल से शुद्धि करना चाहते हो ? जो बाहर से शुद्धि को खोजते हैं उन्हें कुशल पुरुष सुदृष्ट-नहीं कहते । कुश, यूप, तृण, काष्ठ और अग्नि का प्रयोग तथा प्रातः और संध्या में जल का स्पर्श-इस प्रकार तुम मन्दबुद्धि लोग, प्राणियों और भूत जीवों का विनाश करते हुए पापकर्म कर रहे हो ।' सूत्र-३९९ 'हे भिक्षु ! हम कैसे प्रवृत्ति करें ? कैसे यज्ञ करें ? कैसे पाप कर्मों को दूर करें ? हे यक्षपूजित संयत ! हमें बताएँ कि तत्त्वज्ञ पुरुष श्रेष्ठ यज्ञ कौन-सा बताते हैं ?'' सूत्र - ४००-४०१ मुनि-मन और इन्द्रियों को संयमित रखने वाले मुनि पृथ्वी आदि छह जीवनिकाय की हिंसा नहीं करते हैं, असत्य नहीं बोलते हैं, चोरी नहीं करते हैं; परिग्रह, स्त्री, मान और माया को स्वरूपतः जानकर एवं छोड़कर विचरण करते हैं। जो पाँच संवरों से पूर्णतया संवृत होते हैं, जीवन की आकांक्षा नहीं करते, शरीर का परित्याग करते हैं, पवित्र हैं, विदेह हैं, वे वासनाओं पर विजय पाने वाला महाजयी श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं।' सूत्र - ४०२ हे भिक्षु ! तुम्हारी ज्योति कौन सी है ? ज्योति स्थान कौन सा है ? घृतादिप्रक्षेपक कड़छी क्या है ? अग्नि को प्रदीप्त करनेवाले कण्डे कौन से हैं ? तुम्हारा ईंधन और शांतिपाठ कौन सा है ? किस होम से आप ज्योति को प्रज्वलित करते हैं ? सूत्र - ४०३ मुनि-तप ज्योति है । जीव-आत्मा ज्योति का स्थान है । मन, वचन और काया का योग कड़छी है । शरीर कण्डे हैं। कर्म ईंधन है । संयम की प्रवृत्ति शांति-पाठ है । ऐसा मैं प्रशस्त यज्ञ करता हूँ ।'' सूत्र-४०४ है यक्षपूजित संयत ! हमें बताइए कि तुम्हारा द्रह कौन सा है? शांति-तीर्थ कौन से हैं? कहाँ स्नान कर रज दूर करते हो? हम आपसे जानना चाहते हैं।' मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 36

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