Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 48
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - ५१८ जो प्रणीत अर्थात् रसयुक्त पौष्टिक आहार नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवली-प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। अतः निर्ग्रन्थ प्रणीत आहार न करे । सूत्र - ५१९ जो परिमाण से अधिक नहीं खाता-पीता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों? उस ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ को ब्रह्मचर्य के विषय में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् वह केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ परिमाण से अधिक न खाए, न पीए । सूत्र-५२० जो शरीर की विभूषा नहीं करता है, वह निर्ग्रन्थ है । ऐसा क्यों ? वह शरीर को सजाता है, फलतः उसे स्त्रियाँ चाहती हैं । अतः स्त्रियों द्वारा चाहे जाने वाले ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ विभूषानुपाती न बने । सूत्र - ५२१ जो शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त नहीं होता है, वह निर्ग्रन्थ है। ऐसा क्यों ? उस ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, कांक्षा या विचिकित्सा उत्पन्न होती है, यावत् केवलीप्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है । अतः निर्ग्रन्थ शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श में आसक्त न बने । यह ब्रह्मचर्य समाधि का दसवाँ स्थान है । यहाँ कुछ श्रलोक हे, जैसेसूत्र - ५२२ ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए संयमी एकान्त, अनाकीर्ण और स्त्रियों से रहित स्थान में रहे । सूत्र - ५२३-५२४ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु मन में आह्लाद पैदा करने वाली तथा कामराग को बढ़ाने वाली स्त्री-कथा का त्याग करे । स्त्रियों के साथ परिचय तथा बार-बार वार्तालाप का सदा परित्याग करे। सूत्र-५२५-५२६ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु चक्षु-इन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के अंग-प्रत्यंग, संस्थान, बोलने की सुन्दर मुद्रा तथा कटाक्ष को देखने का परित्याग करे । श्रोत्रेन्द्रिय से ग्राह्य स्त्रियों के कूजन, रोदन, गीत, हास्य, गर्जन और क्रन्दन न सुने। सूत्र- ५२७ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, दीक्षा से पूर्व जीवन में स्त्रियों के साथ अनुभूत हास्य, क्रीड़ा, रति, अभिमान और आकस्मिक त्रास का कभी भी अनुचिन्तन न करे । सूत्र-५२८-५२९ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, शीघ्र ही कामवासना को बढ़ाने वाले प्रणीत आहार का सदा-सदा परित्याग करे । चित्त की स्थिरता के लिए, जीवन-यात्रा के लिए उचित समय में धर्म-मर्यादानुसार प्राप्त परिमित भोजन करे, किन्तु मात्रा से अधिक ग्रहण न करे । सूत्र - ५३०-५३१ ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु, विभूषा का त्याग करे । शृंगार के लिए शरीर का मण्डन न करे । शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श इन पाँच प्रकार के कामगुणों का सदा त्याग करे । सूत्र - ५३२-५३५ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" _ Page 48 Page 48

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