Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-३७५
रुद्रदेव-''हमारे सामने अध्यापकों के प्रति प्रतिकूल बोलने वाले निर्ग्रन्थ ! क्या बकवास कर रहा है ? यह अन्न जल भले ही सड़ कर नष्ट हो जाय, पर, हम तुझे नहीं देंगे।'' सूत्र-३७६
यक्ष-मैं समितियों से सुसमाहित हूँ, गुप्तियों से गुप्त हूँ और जितेन्द्रिय हूँ | यह एषणीय आहार यदि नहीं देते हो, तो आज इन यज्ञों का तुम क्या लाभ लोगे ? सूत्र- ३७७-३७९
रुद्रदेव-यहाँ कोई है क्षत्रिय, उपज्योतिष-रसोइये, अध्यापक और छात्र, जो इस निर्ग्रन्थ को डण्डे से, फलक से पीट कर और कण्ठ पकड़ कर निकाल दें।
यह सुनकर बहुत से कुमार दौड़ते हुए आए और दण्डों से, बेंतो से, चाबकों से ऋषि को पीटने लगे। राजा कौशलिक की अनिन्द्य सुंदरी कन्या भद्रा ने मुनि को पीटते देखकर क्रुद्ध कुमारों को रोका। सूत्र-३८०-३८२
भद्रा-देवता की बलवती प्रेरणा से राजा ने मुझे इस मुनि को दिया था, किन्तु मुनि ने मुझे मन से भी नहीं चाहा । मेरा परित्याग करने वाले यह ऋषि नरेन्द्रों और देवेन्द्रों से भी पूजित हैं।
ये वही उग्र तपस्वी, महात्मा, जितेन्द्रिय, संयम और ब्रह्मचारी हैं, जिन्होंने स्वयं मेरे पिता राजा कौशलिक के द्वारा मुझे दिये जाने पर भी नहीं चाहा।
ये ऋषि महान् यशस्वी, महानुभाग, घोरवती, घोर पराक्रमी हैं । ये अवहेलना के योग्य नहीं हैं । अतः अवहेलना मत करो । ऐसा न हो कि, अपने तेज से कहीं यह तुम सबको भस्म कर दें।' सूत्र - ३८३
उस के इन सुभाषित वचनों को सुनकर ऋषि की सेवा के लिए यक्ष कुमारों को रोकने लगे। सूत्र - ३८४-३८७
आकाश में स्थित भयंकर रूप वाले असुरभावापन्न क्रुद्ध यक्ष उनको प्रताड़ित करने लगे । कुमारों को क्षतविक्षत और खून की उल्टी करते देखकर भद्रा ने पुनः कहा
जो भिक्षु का अपमान करते हैं, वे नखों से पर्वत खोदते हैं, दातों से लोहा चबाते हैं और पैरों से अग्नि को कुचलते हैं ।महर्षि आशीविष, घोर तपस्वी, घोर व्रती, घोर पराक्रमी हैं।
जो लोग भिक्षाकाल में मुनि को व्यथित करते हैं, वे पतंगो की भाँति अग्नि में गिरते हैं । यदि तुम अपना जीवन और धन चाहते हो, तो सब मिलकर, नतमस्तक होकर, इनकी शरण लो। यह ऋषि कुपित होने पर समूचे विश्व को भी भस्म कर सकता है। सूत्र-३८८
मुनि को प्रताड़ित करनेवाले छात्रों के सिर पीठ की ओर झुक गये थे । भुजाएँ फैल गई थीं । निश्चेष्ट हो गये थे । आँखें खुली ही रह गई थीं । मुँह से रुधिर निकलने लगा था । मुँह उपर को हो गये थे । जीभे और आँखें बाहर निकल आयीं थीं। सूत्र - ३८९-३९०
इस प्रकार छात्रों को काठ की तरह निश्चेष्ट देखकर वह उदास और भयभीत ब्राह्मण अपनी पत्नी को साथ लेकर मुनि को प्रसन्न करने लगा
भन्ते ! हमने तथा मूढ़ अज्ञानी बालकों ने आपकी जो अवहेलना की है, आप उन्हें क्षमा करें। ऋषिजन महान् प्रसन्नचित्त होते हैं, अतः वे किसी पर क्रोध नहीं करते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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