Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 42
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक हुआ पुरुष रात दिन भटकता है और दूसरों के लिए प्रमादाचरण करनेवाला वह धन की खोज में लगा हुआ एक दिन जरा और मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। यह मेरे पास है, यह नहीं है । यह मुझे करना है, यह नहीं करना है-इस प्रकार व्यर्थ की बकवास करनेवाले व्यक्ति को अपहरण करनेवाली मृत्यु उठा लेती है । उक्त स्थिति होने पर भी प्रमाद कैसा? सूत्र - ४५७ पिता-जिसकी प्राप्ति के लिए लोग तप करते हैं, वह विपुल धन, स्त्रियाँ, स्वजन और इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयभोग- तुम्हें यहाँ पर ही स्वाधीन रूप से प्राप्त हैं । फिर परलोक के इन सुखों के लिए क्यों भिक्षु बनते हो? सूत्र-४५८ पुत्र-जिसे धर्म की धरा को वहन करने का अधिकार प्राप्त है, उसे धन, स्वजन तथा ऐन्द्रियिक विषयों का क्या प्रयोजन ? हम तो गुणसमूह के धारक, अप्रतिबद्धविहारी, शुद्ध भिक्षा ग्रहण करनेवाले श्रमण बनेंगे।" सूत्र - ४५९ 'पुत्रो ! जैसे अरणि में अग्नि, दूध में घी, तिलों में तेल असत् होता है, उसी प्रकार शरीर में जीव भी असत् होता है, शरीर का नाश होने पर जीव का कुछ भी अस्तित्व नहीं रहता।'' सूत्र-४६०-४६२ आत्मा अमूर्त है, अतः वह इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं है । जो अमूर्त भाव होता है, वह नित्य होता है । आत्मा के आन्तरिक रागादि हेतु ही निश्चित रूप से बन्ध के कारण हैं । बन्ध को ही संसार का हेतु कहा है। जब तक हम धर्म के अनभिज्ञ थे, तब तक मोहवश पाप कर्म करते रहे, आपके द्वारा हम रोके गए और हमारा संरक्षण होता रहा । किन्तु अब हम पुनः पाप कर्म का आचरण नहीं करेंगे। ___ लोक आहत है । चारों तरफ से घिरा है । अमोघा आ रही है । इस स्थिति में हम घर में सुख नहीं पा रहे हैं सूत्र-४६३ पुत्रो ! यह लोक किससे आहत है ? किससे घिरा हुआ है ? अमोघा किसे कहते हैं ? यह जानने के लिए मैं चिन्तित हूँ। सूत्र - ४६४-४६६ पिता ! आप अच्छी तरह जान ले कि यह लोक मृत्यु से आहत है, जरा से घिरा हुआ है । और रात्रि को अमोघा कहते हैं । जो जो रात्रि जा रही है, वह फिर लौट कर नहीं आती । अधर्म करनेवाले की रात्रियाँ निष्फल जाती हैं । जो जो रात्रि जा रही है, वह फिर लौट कर नहीं आती । धर्म करनेवाले की रात्रियाँ सफल होती हैं। सूत्र-४६७ ''पुत्रो, पहले हम सब कुछ समय एक साथ रह कर सम्यक्त्व और व्रतों से युक्त हों । पश्चात् ढलती आयु में दीक्षित होकर घर-घर से भिक्षा ग्रहण करते हुए विचरेंगे।" सूत्र-४६८-४६९ "जिसकी मृत्यु के साथ मैत्री है, जो मत्यु के आने पर दूर भाग सकता है, अथवा जो यह जानता है कि मैं कभी मरूंगा ही नहीं, वही आने वाले कल की आकांक्षा कर सकता है। हम आज ही राग को दूर करके श्रद्धा से युक्त मुनिधर्म को स्वीकार करेंगे, जिसे पाकर पुनः इस संसार में जन्म नहीं लेना होता है । हमारे लिए कोई भी भोग अभुक्त नहीं है, क्योंकि वे अनन्त बार भोगे जा चुके हैं।'' सूत्र - ४७०-४७१ प्रबुद्ध पुरोहित-''वाशिष्ठि ! पुत्रों के बिना इस घर में मेरा निवास नहीं हो सकता । भिक्षाचर्या का काल आ मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 42

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