Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक गया है । वृक्ष शाखाओं से ही सुन्दर लगता है । शाखाओं के कट जाने पर वह केवल ठूठ है।
पंखों से रहित पक्षी, सेना से रहित राजा, जलपोत पर धन-रहित व्यापारी जैसे असहाय होता है वैसे ही पुत्रों के बिना मैं भी असहाय हूँ।'' सूत्र-४७२
पुरोहित पत्नी-सुसंस्कृत एवं सुसंगृहीत कामभोग रूप प्रचुर विषयरस जो हमें प्राप्त हैं, उन्हें पहले इच्छानुरूप भोग लें। उसके बाद हम मुनिधर्म के प्रधान मार्ग पर चलेंगे। सूत्र-४७३
पुरोहित- भवति ! हम विषयरसों को भोग चुके हैं । युवावस्था हमें छोड़ रही है । मैं जीवन के प्रलोभन में भोगों को नहीं छोड़ रहा हूँ । लाभ-अलाभ, सुख-दुख को समदृष्टि से देखता हुआ मैं मुनिधर्म का पालन करूँगा। सूत्र - ४७४
पुरोहित-पत्नी-''प्रतिस्रोत में तैरने वाले बूढ़े हंस की तरह कहीं तुम्हें फिर अपने बन्धुओं को याद न करना पड़े ? अतः मेरे साथ भोगों को भोगो । यह भिक्षाचर्या और यह ग्रामानुग्राम विहार काफी दुःखरूप है। सूत्र-४७५-४७६
पुरोहित-भवति ! जैसे सांप अपने शरीर की केंचुली को छोड़कर मुक्तमन से चलता है, वैसे ही दोनों पुत्र भोगों को छोड़ कर जा रहे हैं। अतः मैं क्यों न उनका अनुगमन करूँ?
रोहित मत्स्य जैसे कमजोर जाल को काटकर बाहर निकल जाते हैं, वैसे ही धारण किए हुए गुरुतर संयमभार को वहन करनेवाले प्रधान तपस्वी धीर साधक कामगुणों को छोड़कर भिक्षाचर्या को स्वीकार करते हैं। सूत्र-४७७-४७८
___पुरोहित-पत्नी-जैसे क्रौंच पक्षी और हंस बहेलियों द्वारा प्रसारित जालों को काटकर आकाश में स्वतन्त्र उड जाते हैं, वैसे ही मेरे पुत्र और पति भी छोड़कर जा रहे हैं । मैं भी क्यों न उनका अनुगमन करूँ?
पुत्र और पत्नी के साथ पुरोहितने भोगों को त्याग कर अभिनिष्क्रमण किया है ।यह सुनकर उस कुटुम्ब की प्रचुर और श्रेष्ठ धनसंपत्ति की चाह रखनेवाले राजा को रानी कमलावतीने कहा - सूत्र - ४७९-४८०
रानी कमलावती-तुम ब्राह्मण के द्वारा परित्यक्त धन को ग्रहण करने की इच्छा रखते हो । राजन् ! वमन को खाने वाला पुरुष प्रशंसनीय नहीं होता है।
सारा जगत् और जगत् का समस्त धन भी यदि तुम्हारा हो जाय, तो भी वह तुम्हारे लिए अपर्याप्त ही होगा। और वह धन तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकेगा।'' सूत्र-४८१-४८२
'राजन् ! एक दिन इन मनोज्ञ काम गुणों को छोड़कर जब मरोगे, तब एक धर्म ही संरक्षक होगा । यहाँ धर्म के अतिरिक्त और कोई रक्षा करने वाला नहीं है।
पक्षिणी जैसे पिंजरे में सुख का अनुभव नहीं करती है, वैसे ही मुझे भी यहाँ आनन्द नहीं है ।
मैं स्नेह के बंधनो को तोड़कर अकिंचन, सरल, निरासक्त, परिग्रह और हिंसा से निवृत्त होकर मुनि धर्म का आचरण करूँगी। सूत्र- ४८३-४८४
जैसे कि वन में लगे दावानल में जन्तुओं को जलते देख रागद्वेष के कारण अन्य जीव प्रमुदित होते हैं । उसी प्रकार कामभोगों में मूर्च्छित हम मूढ लोग भी राग द्वेष की अग्नि में जलते हुए जगत् को नहीं समझ रहे हैं। सूत्र - ४८५
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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