Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 44
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक आत्मवान् साधक भोगों को भोगकर और यथावसर उन्हें त्यागकर वायु की तरह अप्रतिबद्ध होकर विचरण करते हैं । अपनी इच्छानुसार विचरण करनेवाले पक्षियों की तरह प्रसन्नतापूर्वक स्वतन्त्र विहार करते हैं। सूत्र-४८६ आर्य ! हमारे हस्तगत हए ये कामभोग, जिन्हें हमने नियन्त्रित समझ रखा है, वस्तुतः क्षणिक है । अभी हम कामनाओं में आसक्त हैं, किन्तु जैसे कि पुरोहित-परिवार बन्धनमुक्त हआ, वैसे ही हम भी होंगे। सूत्र-४८७-४८९ जिस गीध पक्षी के पास मांस होता है, उसी पर दूसरे मांसभक्षी पक्षी झपटते हैं। जिसके पास मांस नहीं होता, उस पर नहीं झपटते हैं । अतः मैं भी मांसोपम सब कामभोगों को छोड़कर निरामिष भाव से विचरण करूँगी संसार को बढ़ाने वाले कामभोगों को गीध के समान जानकर, उनसे वैसे ही शंकित होकर चलना चाहिए, जैसे कि गरुड़ के समीप सांप ।' - ''बन्धन को तोड़कर जैसे हाथी अपने निवास स्थान में चला जाता है, वैसे ही हमें भी अपने वास्तविक स्थान में चलना चाहिए । हे महाराज इषुकार ! यही एक मात्र श्रेयस्कर है, ऐसा मैंने ज्ञानियों से सुना है।" सूत्र-४९०-४९१ विशाल राज्य को छोड़कर, दुस्त्यज कामभोगों का परित्याग कर, वे राजा और रानी भी निर्विषय, निरामिष, निःस्नेहैर निष्परिग्रह हो गए । धर्म को सम्यक् रूप से जानकर, फलतः उपलब्ध श्रेष्ठ कामगुणों को छोड़कर, दोनों ही यथोपदिष्ट घोर तप को स्वीकार कर संयम में घोर पराक्रमी बने । सूत्र-४९२-४९४ इस प्रकार वे सब क्रमशः बुद्ध बने, धर्मपरायण बने, जन्म एवं मृत्यु के भय से उद्विग्न हुए, अत एव दुःख के अन्त की खोज में लग गये । जिन्होंने पूर्व जन्म में अनित्य एवं अशरण आदि भावनाओं से अपनी आत्मा को भावित किया था, वे सब राजा, रानी, ब्राह्मण, पुरोहित, उसकी पत्नी और उनके दोनों पुत्र वीतराग अर्हत्-शासन में मोह को दूर कर थोड़े समय में ही दुःख का अन्त करके मुक्त हो गए । -ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-१४ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 44

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