Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 45
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, 'उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१५-स-भिक्षुक सूत्र-४९५ धर्म को स्वीकार कर मुनिभाव का आचरण करूँगा । उक्त संकल्प से जो ज्ञान दर्शनादि गुणों से युक्त रहता है, जिसका आचरण सरल है, निदानों को छेद दिया है, पूर्व परिचय का त्याग करता है, कामनाओं से मुक्त है, अपनी जाति आदि का परिचय दिए बिना ही जो भिक्षा की गवेषणा करता है और जो अप्रतिबद्ध भाव से विहार करता है, वह भिक्षु है। सूत्र-४९६ जो राग से उपरत है, संयम में तत्पर है, आश्रव से विरत है, शास्त्रों का ज्ञाता है, आत्मरक्षक एवं प्राज्ञ है, रागद्वेष को पराजित कर सभी को अपने समान देखता है, किसी भी वस्तु में आसक्त नहीं होता है, वह भिक्षु है। सूत्र-४९७ कठोर वचन एवं वध-को अपने पूर्व-कृत कर्मों का फल जानकर जो धीर मुनि शान्त रहता है, संयम से प्रशस्त है, आश्रव से अपनी आत्मा को गुप्त किया है, आकुलता और हर्षातिरेक से रहित है, समभाव से सब कुछ सहनता है, वह भिक्षु है। सूत्र-४९८ जो साधारण से साधारण आसन और शयन को समभाव से स्वीकार करता है, सर्दी-गर्मी तथा डांसमच्छर आदि के उपसर्गों में हर्षित और व्यथित नहीं होता है, जो सब कुछ सह लेता है, वह भिक्षु है। सूत्र-४९९ जो भिक्षु सत्कार, पूजा और वन्दना तक नहीं चाहता है, वह किसी से प्रशंसा की अपेक्षा कैसे करेगा ? जो संयत है, सुव्रती है, और तपस्वी है, निर्मल आचार से युक्त है, आत्मा की खोज में लगा है, वह भिक्षु है । सूत्र-५०० स्त्री हो या पुरुष, जिसकी संगति से संयमी जीवन छूट जाये और सब ओर से पूर्ण मोह में बंध जाए, तपस्वी उस संगति से दूर रहता है, जो कुतूहल नहीं करता, वह भिक्षु है । सूत्र - ५०१ जो छिन्न, स्वर-विद्या, भौम, अन्तरिक्ष, स्वप्न, लक्षण, दण्ड, वास्तु-विद्या, अंगविकार और स्वर-विज्ञान इन विद्याओं से जो नहीं जीता है, वह भिक्षु है । सूत्र - ५०२ जो रोगादि से पीड़ित होने पर भी मंत्र, मूल आदि विचारणा, वमन, विरेचन, धूम्रपान की नली, स्नान, स्वजनों की शरण और चिकित्सा का त्याग कर अप्रतिबद्ध भाव से विचरण करता है, वह भिक्षु है। सूत्र-५०३ क्षत्रिय, गण, उग्र, राजपुत्र, ब्राह्मण, भोगिक और सभी प्रकार के शिल्पियों की पूजा तथा प्रशंसा में जो कभी कुछ भी नहीं कहता है, किन्तु इसे हेय जानकर विचरता है, वह भिक्षु है। सूत्र -५०४ जो व्यक्ति प्रव्रजित होने के बाद अथवा जो प्रव्रजित होने से पहले के परिचित हों, उनके साथ इस लोक के फल की प्राप्ति हेतु जो संस्तव नहीं करता है, वह भिक्षु है। सूत्र-५०५ शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्य एवं खाद्य कोई स्वयं न दे अथवा माँगने पर भी मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 45

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