Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 38
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-१३-चित्रसम्भूतीय सूत्र-४०७ जाति से पराजित संभूत मुनि ने हस्तिनापुर में चक्रवर्ती होने का निदान किया था । वहाँ से मरकर वह पद्मगुल्म विमान में देव बना । फिर ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती के रूप में चुलनी की कुक्षि से जन्म लिया। सूत्र-४०८ सम्भूत काम्पिल्य नगर में और चित्र पुरिमताल नगर में, विशाल श्रेष्ठिकुल में, उत्पन्न हुआ । और वह धर्म सुनकर प्रव्रजित हो गया। सूत्र-४०९ काम्पिल्य नगर में चित्र और सम्भूत दोनों मिले । उन्होंने परस्पर सुख और दुःख रूप कर्मफल के विपाक के सम्बन्ध में बातचीत की। सूत्र - ४१० ___ महान् ऋद्धिसंपन्न एवं महान् यशस्वी चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त ने अतीव आदर के साथ अपने भाई को इस प्रकार कहासूत्र-४११-४१३ ''इसके पूर्व हम दोनों परस्पर वशवर्ती, अनुरक्त और हितैषी भाई-भाई थे ।- ''हम दोनों दशार्ण देश में दास, कालिंजर पर्वत पर हरिण, मृत-गंगा के किनारे हंस और काशी देश में चाण्डाल थे । देवलोक में महान् ऋद्धि से सम्पन्न देव थे । यह हमारा छठवां भव है, जिसमें हम एक-दूसरे को छोड़कर पृथक्-पृथक् पैदा हुए हैं।'' सूत्र-४१४ "राजन् ! तूने निदानकृत कर्मों का विशेष रूप से चिन्तन किया । उसी कर्मफल के विपाक से हम अलगअलग पैदा हुए हैं।'' सूत्र-४१५ चित्र ! पूर्व जन्म में मेरे द्वारा किए गए सत्य और शुद्ध कर्मों के फल को आज मैं भोग रहा हूँ, क्या तुम भी वैसे ही भोग रहे हो?" सूत्र-४१६-४१८ मुनि-मनुष्यों के द्वारा समाचरित सब सत्कर्म सफल होते हैं । किए हए कर्मों के फल को भोगे बिना मुक्ति नहीं है। मेरी आत्मा भी उत्तम अर्थ और कामों के द्वारा पुण्यफल से युक्त रही है। सम्भूत ! जैसे तुम अपने आपको भाग्यवान्, महान् ऋद्धि से संपन्न और पुण्यफल से युक्त समझते हो, वैसे चित्र को भी समझो । राजन् ! उसके पास भी प्रचुर ऋद्धि और द्युति रही है।' स्थविरों ने जनसमुदाय में अल्पाक्षर, किन्तु महार्थ-गाथा कही थी, जिसे शील और गुणों से युक्त भिक्षु यत्न से अर्जित करते हैं । उसे सुनकर मैं श्रमण हो गया ।'' सूत्र - ४१९-४२० चक्रवर्ती-उच्चोदय, मधु, कर्क, मध्य और ब्रह्मा-ये मुख्य प्रासाद तथा और भी अनेक रमणीय प्रासाद हैं। पांचाल देश के अनेक विशिष्ट पदार्थों से युक्त तथा प्रचुर एवं विविध धन से परिपूर्ण इन ग्रहों को स्वीकार करो। तुम नाट्य, गीत और वाद्यों के साथ स्त्रियों से घिरे हुए इन भोगों को भोगो । मुझे यही प्रिय है । प्रव्रज्या निश्चय से दुःखप्रद है।' मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 38

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