Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-४२१
उस राजा के हितैषी धर्म में स्थित चित्र मुनि ने पूर्व भव के स्नेह से अनुरक्त एवं कामभोगों में आसक्त राजा को इस प्रकार कहासूत्र-४२२-४२३
सब गीत-गान विलाप हैं । समस्त नाट्य विडम्बना हैं । सब आभरण भार हैं । और समग्र काम-भोग दुःखप्रद हैं ।" - "अज्ञानियों को सुन्दर दिखनेवाले, किन्तु वस्तुतः दुःखकर कामभोगों में वह सुख नहीं है, जो सुख शीलगुणों में रत, कामनाओं से निवृत्त तपोधन भिक्षुओं को है।'' सूत्र - ४२४-४२६
'हे नरेन्द्र ! मनुष्यों में जो चाण्डाल जाति अधम जाती मानी जाती है, उसमें हम दोनों उत्पन्न हो चुके हैं, चाण्डालों की बस्ती में हम दोनों रहते थे, जहाँ सभी लोग हमसे द्वेष करते थे। उस जाति में हमने जन्म लिया था और वहीं हम दोनों रहे थे । तब सभी हमसे धृणा करते थे।
अतः यहाँ जो श्रेष्ठता प्राप्त है, वह पूर्व जन्म के शुभ कर्मों का फल है । पूर्व शुभ कर्मों के फलस्वरूप इस समय वह तू अब महानुभाग, महान् ऋद्धिवाला राजा बना है । अतः तू क्षणिक भोगों को छोड़कर चारित्र धर्म की आराधना के हेतु अभिनिष्क्रमण कर ।' सूत्र-४२७-४३१
''राजन् ! इस अशाश्वत मानवजीवन में जो विपुल पुण्यकर्म नहीं करता है, वह मृत्यु के आने पर पश्चात्ताप करता है और धर्म न करने के कारण परलोक में भी पश्चात्ताप करता है।
__जैसे कि यहाँ सिंह हरिण को पकड़कर ले जाता है, वैसे ही अन्तकाल में मृत्यु मनुष्य को ले जाता है । मृत्यु के समय में उसके मात-पिता और भाई कोई भी मृत्युदुःख में हिस्सेदार नहीं होते हैं।
उसके दुःख को न जाति के लोग बँटा सकते हैं और न मित्र, पुत्र तथा बन्धु ही । वह स्वयं अकेला ही प्राप्त दुःखों को भोगता है, क्योंकि कर्म कर्ता के ही पीछे चलता है।
सेवक, पशु, खेत, घर, धन-धान्य आदि सब कुछ छोड़कर यह पराधीन जीव अपने कृत कर्मों को साथ लिए सुन्दर अथवा असुन्दर परभव को जाता है।
जीवरहित उस एकाकी तुच्छ शरीर को चिता में अग्नि से जलाकर स्त्री, पुत्र और जाति-जन किसी अन्य आश्रयदाता का अनुसरण करते हैं।' सूत्र-४३२
'राजन् ! कर्म किसी प्रकार का प्रमाद किए बिना जीवन को हर क्षण मृत्यु के समीप ले जा रहा है, और यह जरा मनुष्य की कान्ति का हरण कर रही है । पांचालराज ! मेरी बात सुनो । प्रचुर अपकर्म मत करो।' सूत्र - ४३३
हे साधो ! जैसे कि तुम मुझे बता रहे हो, मैं भी जानता हूँ कि ये कामभोग बन्धनरूप हैं, किन्तु आर्य ! हमारे जैसे लोगों के लिए तो ये बहुत दुर्जय हैं ।'' सूत्र-४३४-४३६
चित्र ! हस्तिनापुर में महान् ऋद्धि वाले चक्रवर्ती राजा को देखकर भोगों में आसक्त होकर मैंने अशुभ निदान किया था।'' - "उस का प्रतिक्रमण नहीं किया । उसी कर्म का यह फल है कि धर्म को जानता हआ भी मैं कामभोगों में आसक्त हूँ,
जैसे दलदल में धंसा हाथी स्थल को देखकर भी किनारे पर नहीं पहुंच पाता है, वैसे ही हम कामभोगों में आसक्त जन जानते हुए भी भिक्षुमार्ग का अनुसरण नहीं कर पाते हैं।''
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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