Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक अध्ययन-५-अकाममरणीय सूत्र-१२९-१३०
संसार सागर की भाँति है, उसका प्रवाह विशाल है, उसे तैर कर पार पहुँचना अतीव कष्टसाध्य है । फिर भी कुछ लोग पार कर गये हैं । उन्हीं में से एक महाप्राज्ञ (महावीर) ने यह स्पष्ट किया था।
मृत्यु के दो भेद हैं-अकाम मरण और सकाम मरण। सूत्र-१३१
बालजीवों के अकाम मरण बार-बार होते हैं । पण्डितों का सकाम मरण उत्कर्ष से एक बार होता है। सूत्र - १३२-१३४
महावीर ने दो स्थानों में से प्रथम स्थान के विषय में कहा है कि काम-भोग में आसक्त बाल जीव-अज्ञानी आत्मा क्रूर कर्म करता है । जो काम-भोगों में आसक्त होता है, वह कूट की ओर जाता है।
वह कहता है-''परलोक तो मैंने देखा नहीं है । और यह रति सुख है-'' 'वर्तमान के ये कामभोग-सम्बन्धी सुख तो हस्तगत हैं । भविष्य में मिलने वाले सुख संदिग्ध हैं । कौन जानता है-परलोक है या नहीं-" | सूत्र-१३५-१४०
''मैं तो आम लोगों के साथ रहूँगा । ऐसा मानकर अज्ञानी मनुष्य भ्रष्ट हो जाता है । किन्तु वह कामभोग के अनुराग से कष्ट ही पाता है । फिर वह त्रस एवं स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है । प्रयोजन से अथवा निष्प्रयोजन ही प्राणीसमूह की हिंसा करता है।
जो हिंसक, बाल-अज्ञानी, मृषावादी, मायावी, चुगलखोर तथा शठ होता है वह मद्य एवं मांस सेवन करता हुआ यह मानता है कि यही श्रेय है । वह शरीर और वाणी से मत्त होता है, धन और स्त्रियों में आसक्त रहता है।
वह राग और द्वेष दोनों से वैसे ही कर्म-मल संचय करता है, जैसे कि शिशुनाग अपने मुख और शरीर दोनों से मिट्टी संचय करता है । फिर वह भोगासक्त बालजीव आतंकरोग से आक्रान्त होने पर ग्लान होता है, परिताप करता है, अपने किए हुए कर्मों को याद कर परलोक से भयभीत होता है।
वह सोचता है, मैंने उन नारकीय स्थानों के विषय में सुना है, जो शील से रहित क्रूर कर्मवाले अज्ञानी जीवों की गति है, और जहाँ तीव्र वेदना है। सूत्र-१४१-१४३
उन नरकों में औपपातिक स्थिति है । आयुष्य क्षीण होने के पश्चात् अपने कृतकर्मों के अनुसार वहाँ जाता हुआ प्राणी परिताप करता है । जैसे कोई गाड़ीवान् समतल महान् मार्ग को जानता हुआ भी उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है और तब गाड़ी की धुरी टूट जाने पर शोक करता है।
इसी प्रकार जो धर्म का उल्लंघन कर अधर्म को स्वीकार करता है, वह मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ बालजीव शोक करता है, जैसे कि धुरी के टूटने पर गाड़ीवान् शोक करता है। सूत्र-१४४-१४५
मृत्यु के समय वह अज्ञानी परलोक के भय से संत्रस्त होता है । एक ही दाव में सब कुछ हार जानेवाले धूर्त की तरह शोक करता हुआ अकाम मरण से मरता है । यह अज्ञानी जीवों के अकाम मरण का प्रतिपादन किया है। अब पण्डितों के सकाम मरण को मुझसे सुनोसूत्र-१४६-१४७
जैसा कि मैंने परम्परा से सुना है कि-संयत और जितेन्द्रिय पुण्यात्माओं का मरण अतिप्रसन्न और आघातरहित होता है । यह सकाम मरण न सभी भिक्षुओं को प्राप्त होता है और न सभी गृहस्थों को । गृहस्थ नाना
से सम्पन्न होते हैं, जब कि बहुत से भिक्षु भी विषम-शीलवाले होते हैं।
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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