Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar

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Page 27
________________ आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन' अध्ययन/सूत्रांक सूत्र-२७३-२७४ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-''हे क्षत्रिय ! तुम चाँदी, सोना, मणि, मोती, कांसे के पात्र, वस्त्र, वाहन और कोश की वृद्धि करके फिर मुनि बनना।' सूत्र - २७५-२७७ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''सोने और चाँदी के कैलाश के समान असंख्य पर्वत हों, फिर भी लोभी मनुष्य की उनसे कुछ भी तृप्ति नहीं होती। क्योंकि इच्छा आकाश समान अनन्त है ।" "पृथ्वी चावल, जौ, सोना और पशु की इच्छापूर्ति के लिए भी पर्याप्त नहीं है- यह जानकर साधक तप का आचरण करे ।' सूत्र - २७८-२७९ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित देवेन्द्रने कहा-'' हे पार्थिव ! आश्चर्य है, तुम प्रत्यक्ष में प्राप्त भोगों को त्याग रहे हो और अप्राप्त भोगों की इच्छा कर रहे हो । मालूम होता है, तुम व्यर्थ के संकल्पों से ठगे जा रहे हो।' सूत्र-२८०-२८२ इस अर्थ को सुनकर, हेतु और कारण से प्रेरित नमि राजर्षिने कहा-''संसार के काम भोग शल्य हैं, विष हैं और आशीविष सर्प के तुल्य हैं। जो कामभोगों चाहते हैं, किन्तु उनका सेवन नहीं कर पाते , वे भी दुर्गति में जाते है क्रोध से अधोगति में जाना होता है। मान से अधमगति होती है । माया से सुगति में बाधाएँ आती है। लोभ से दोनों तरह का भय होता है।'' सूत्र - २८३-२८८ देवेन्द्र ब्राह्मण का रूप छोड़कर, अपने वास्तविक इन्द्रस्वरूप को प्रकट करके मधुर वाणी से स्तुति करता हुआ नमि राजर्षि को वन्दना करता है-''अहो, आश्चर्य है-तुमने क्रोध को जीता । मान को पराजित किया । माया को निराकृत किया । लोभ को वश में किया। अहो ! उत्तम है तुम्हारी सरलता । उत्तम है तुम्हारी मृदुता । उत्तम है तुम्हारी क्षमा । अहो ! उत्तम है तुम्हारी निर्लोभता । भगवन् ! आप इस लोक में भी उत्तम हैं और परलोक में भी उत्तम होंगे । कर्म-मल से रहित होकर आप लोक में सर्वोत्तम स्थान सिद्धि को प्राप्त करेंगे। टस प्रकार स्तति करते हए इन्द्र ने, उत्तम श्रद्धा से, राजर्षि को प्रदक्षिणा करते हुए, अनेक बार वन्दना की | इसके पश्चात नमि मुनिवर के चक्र और अंकुश के लक्षणों से युक्त चरणों की वन्दना करके ललित एवं चपल कुण्डल और मुकुट को धारण करनेवाला इन्द्र ऊपर आकाशमार्ग से चला गया। सूत्र - २८९ नमिराजर्षिने आत्मभावना से अपने को विनत किया । साक्षात् देवेन्द्र के द्वारा प्रेरित होने पर भी गृह और वैदेही की राज्यलक्ष्मी को त्याग कर श्रामण्यभाव में सुस्थिर रहे । सूत्र-२९० संबुद्ध, पण्डित और विचक्षण पुरुष इसी प्रकार भोगों से निवृत्त होते हैं, जैसे कि नमि राजर्षि । - ऐसा मैं कहता हूँ। अध्ययन-९ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद" Page 27

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