Book Title: Agam 43 Uttaradhyayan Sutra Hindi Anuwad
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Dipratnasagar, Deepratnasagar
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आगम सूत्र ४३, मूलसूत्र-४, ‘उत्तराध्ययन'
अध्ययन/सूत्रांक सूत्र - २२२-२२३
जो वर्तमान जीवन को नियंत्रित न रख सकने के कारण समाधियोग से भ्रष्ट हो जाते हैं, वे कामभोग और रसों में आसक्त असुरकाय में उत्पन्न होते हैं । वहाँ से निकलकर भी वे संसार में बहुत काल तक परिभ्रमण करते हैं। बहुत अधिक कर्मों से लिप्त होने के कारण उन्हें बोधि धर्म की प्राप्ति अतीव दुर्लभ है । सूत्र - २२४-२२५
धन-धान्य आदि से प्रतिपूर्ण यह समग्र विश्व भी यदि किसी एक को दे दिया जाए, तो भी वह उससे सन्तुष्ट नहीं होगा । इतनी दुष्पूर है यह लोभाभिभूत आत्मा । जैसे लाभ होता है, वैसे लोभ होता है । लाभ से लोभ बढ़ता जाता है । दो माशा सोने से निष्पन्न होनेवाला कार्य करोड़ों स्वर्ण-मुद्राओंसे भी पूरा नहीं हो सका। सूत्र- २२६-२२७
जिनके हृदय में कपट है अथवा जो वक्ष में फोड़े के रूप स्तनोंवाली हैं, जो अनेक कामनाओंवाली हैं, जो पुरुष को प्रलोभन मैं फँसाकर उसे दास की भाँति नचाती हैं, ऐसी राक्षसी-स्वरूप साधनाविद्या तक स्त्रियों में आसक्ति नहीं रखनी चाहिए।
स्त्रियों को त्यागनेवाला अनगार उनमें आसक्त न हो । भिक्षु-धर्म को पेशल जानकर उसमें अपनी आत्मा को स्थापित करे। सूत्र - २२८
विशुद्ध प्रज्ञावाले कपिल मुनिने इस प्रकार धर्म कहा है । जो इसकी सम्यक् आराधना करेंगे, वे संसारसमुद्र को पार करेंगे । उनके द्वारा ही दोनों लोक आराधित होंगे। -ऐसा मैं कहता हूँ।
अध्ययन-८ का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
मुनि दीपरत्नसागर कृत् “(उत्तराध्ययन) आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद"
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