Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भूमिका सामायिक आवश्यक
आवश्यक के छह भेद हैं, उनमें प्रथम आवश्यक सामायिक का विशेष महत्त्व है। आचार्य भद्रबाहु ने जितना विस्तार सामायिक का किया, उतना अन्य आवश्यकों का नहीं किया। आचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने तो सामायिक आवश्यक एवं उसकी नियुक्ति पर ही अपनी विशिष्ट कृति लिखी, जो
यक भाष्य के नाम से प्रसिद्ध है। सामायिक की व्यत्त्पत्ति करते हए आचार्य मलयगिरि कहते हैं कि सम अर्थात् एकत्व रूप से आत्मा का आय-लाभ समाय है। समाय का भाव ही सामायिक है। इसका दूसरा निरुक्त इस प्रकार भी किया जा सकता है--हिंसा के हेतुभूत जो आय-स्रोत हैं, उनका त्याग कर प्रवृत्ति को संयत करना समाय है। इस प्रयोजन से होने वाला प्रयत्न सामायिक है। वट्टकेर के अनुसार सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, संयम और तप के साथ जो प्रशस्त समागम है, वह समय है, उसे ही सामायिक जानना चाहिए। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने समय के स्थान पर समाय शब्द का प्रयोग करके सामायिक की यही व्याख्या की है। विशेषावश्यकभाष्य में सामायिक की व्याख्या अनेक निरुक्तों के माध्यम से की गयी
समता का महत्त्व हर धर्म में उद्गीत हुआ है। भगवान् महावीर के अनुसार समता में आर्य धर्म प्रज्ञप्त है। गीता में समत्व को योग कहा है। योगशास्त्र में आचार्य हरिभद्र स्पष्ट कहते हैं कि न हि साम्येन विना ध्यानम् अर्थात् साम्ययोग के बिना ध्यान-साधना के क्षेत्र में चरणन्यास नहीं किया जा सकता। चूर्णिकार जिनदासगणि कहते हैं कि जैसे आकाश सब द्रव्यों का आधार है, वैसे ही सामायिक सब गुणों की आधार भूमि है। समभाव विशिष्ट लब्धियों का हेतुभूत है तथा सब पापों पर अंकुश लगाने वाला है। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण इसके माहात्म्य को प्रकट करते हुए कहते हैं कि षडावश्यक में सामायिक प्रथम आवश्यक है। चतुर्विंशति आदि शेष पांच आवश्यक एक अपेक्षा से सामायिक के ही भेद हैं क्योंकि सामायिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप है और चतुर्विंशति आदि में इन्हीं गुणों का समावेश हुआ है। उन्होंने सामायिक को चौदह पूर्वो का सार माना है।
समता का अर्थ है-मन की स्थिरता, राग-द्वेष का शमन और सुख-दुःख में निश्चलता। विषम भावों से स्वयं को हटाकर स्व-स्वरूप में रमण करना समता है।
सामायिक चारित्र की अवस्थिति सभी तीर्थंकरों के समय में होती है किन्तु अन्य चारित्रों की अवस्थिति आवश्यक नहीं है। श्रावक के १२ व्रतों में सामायिक नौवें व्रत के रूप में प्रसिद्ध है तथा चार शिक्षाव्रतों में प्रथम स्थान सामायिक को प्राप्त है। आचार्य वकेर के अनसार जीवन-मरण, लाभ-हानि. संयोग-वियोग, मित्र-शत्रु, सुख-दुःख आदि में राग-द्वेष न करके इनमें समभाव रखना सामायिक है।
१. मूला. ५१९;
सम्मत्त-णाण-संजम-तवेहि जंतं पसत्थसमगमण।
समयं तु तं तु भणिदं, तमेव सामाइयं जाण ॥ २. विभामहे गा. ३४७७-३४८६ । ३. गीता २/४८; समत्वं योग उच्यते। ४. योगशास्त्र ४/११४। ५. अनुद्वाचू. पृ. १८; समभावलक्खणं सव्वचरणादिगणाधारं वोमं पिव सव्वदव्वाणं सव्वविसेसलद्धीण य हेतुभूतं पायं
पावअंकुसदाणं। ६. विभा ९०६, महेटी पृ. २१४। ७. (क) विभा२७९६; सामइयं संखेवो, चोद्दसपुव्वत्थपिंडोत्ति।
(ख) तत्त्वार्थ वृत्ति १/१। ८. मूला. २३;
जीविद-मरणे लाभालाभे संजोय-विप्पओगे य। बंधुरि-सह-दुक्खादिस. समदा सामाइयं णाम ॥
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