Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 22
________________ भूमिका आवश्यकों का क्रम एवं वैशिष्ट्य आवश्यक छह हैं—१. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वंदना ४ प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान । मूलाचार में कुछ नाम-भेद के साथ छह आवश्यकों के नाम मिलते हैं - १. समता, २. स्तव, ३. वंदन, ४. प्रतिक्रमण, ५. प्रत्याख्यान, ६. विसर्ग ।' छहों आवश्यकों का क्रम बहुत वैज्ञानिक और क्रमबद्ध है। टीकाकार शान्त्याचार्य के अनुसार विरति सहित व्यक्ति के ही सामायिक संभव है । विरति और सामायिक दोनों एक साथ उत्पन्न होते हैं । जब तक हृदय में समता का अवतरण नहीं होता, तब तक समता के शिखर पर स्थित वीतराग के गुणों का उत्कीर्तन कर उनके गुणों को अपनाने की दिशा में प्रस्थान नहीं हो सकता। प्रमोदभाव या गुणग्राहकता का विकास होने पर ही व्यक्ति अपने से ज्ञानी या वंदनीय व्यक्ति के चरणों में सिर झुकाता है। झुकने वाला व्यक्ति स्वतः नम्र एवं सरल बन जाता है। सरल व्यक्ति ही कृत दोषों की आलोचना कर सकता है अतः वंदना के बाद प्रतिक्रमण आवश्यक का क्रम उपयुक्त है। पंडित सुखलालजी के अनुसार वंदन के पश्चात् प्रतिक्रमण को रखने का आशय यह है कि आलोचना गुरु के समक्ष की जाती है। जो गुरु-वंदन नहीं करता, वह आलोचना का अधिकारी ही नहीं। दोषों के परिमार्जन में कायोत्सर्ग आवश्यक है । तन और मन की स्थिरता सधने पर प्रतिक्रमण अर्थात् दोषों का परिमार्जन स्वतः हो जाता है। व्यक्ति के भीतर जब स्थिरता एवं एकाग्रता सधती है, तभी वह वर्तमान में अकरणीय का प्रत्याख्यान करता है अथवा भविष्य में भोगों की सीमा हेतु संयमित होने का व्रत लेता है। संभव है इसीलिए प्रत्याख्यान को अंतिम आवश्यक के रूप में रखा है। सभी आवश्यक आपस में कार्य-कारण की श्रृंखला से बंधे हुए हैं अत: एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। पंडित सुखलालजी ने आवश्यक के क्रम के बारे में विस्तार से चर्चा की है। कुंदकुंद के साहित्य में षडावश्यक के नाम भिन्न मिलते हैं - १. प्रतिक्रमण २. प्रत्याख्यान ३. आलोचना ४. कायोत्सर्ग ५. सामायिक ६. परमभक्ति । आवश्यकों का प्रयोजन अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के अधिकारों का प्रयोजन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से प्रस्तुत किया गया है। प्रथम सामायिक आवश्यक में पापकारी प्रवृत्ति से दूर रहकर समता पूर्वक जीवन जीने का संकल्प किया जाता है। दूसरे चतुर्विंशतिस्तव आवश्यक में सर्वोच्च शिखर पर स्थित महापुरुषों के गुणों की स्तवना की जाती है, इससे अंत:करण की विशुद्धि होने के कारण दर्शन की विशुद्धि होती है। अनुयोगद्वार चूर्णि के अनुसार दर्शनविशोधि, बोधिलाभ और कर्मक्षय के लिए तीर्थंकरों का उत्कीर्तन करना चाहिए ।" तृतीय वंदना आवश्यक गुणयुक्त गुरुजनों की शरण एवं उनकी वंदना की बात कहता है, जिससे उनके गुण १. मूला. २२; समदा थवो य वंदण, पाडिक्कमणं तहेव णादव्वं । पच्चक्खाण विसग्गो, करणीयावासया छप्पि | २. पंच प्रतिक्रमण, प्रस्तावना पृ. १४ । ३. दर्शन और चिंतन, खंड २ पृ. १८०-१८२ । ४. अनुद्वा ७४ / १; सावज्जजोगविरई, उक्कित्तण गुणवओ य पडिवत्ती । खलियस्स निंदणा, वणतिगिच्छा गुणधारणा चेव ॥ Jain Education International २१ ५. उ. २९/१०; चउव्वीसत्थएणं दंसणविसोहिं जणयइ । ६. (क) अनुद्वाचू. पृ. १८; बितिए दरिसणविसोहिनिमित्तं पुण बोधिलाभत्थं च कम्मखवणत्थं च तित्थगराणामुक्कित्तणा कता । (ख) मूला. ५७१; भत्तीए For Private & Personal Use Only जिणवराणं, पुव्वसंचियं कम्मं खीयदि जं। www.jainelibrary.org

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