Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भूमिका
है, इसलिए इसे ध्रुवयोग कहा गया है। अनुयोगद्वार चूर्णि में कर्म, कषाय और इंद्रिय को ध्रुव माना है। आवश्यक के द्वारा इनका निग्रह होता है अत: इसे ध्रुवनिग्रह कहा है। ध्रुव का दूसरा अर्थ अवश्य भी किया है। विशेषावश्यकभाष्य की मलधारी हेमचन्द्र की टीका में ध्रुव और निग्रह को अलग-अलग शब्द मानकर व्याख्या की गयी है। उसके अनुसार अर्थ की दृष्टि से ध्रुव या शाश्वत होने के कारण आवश्यक का एक नाम ध्रुव तथा इंद्रिय-विषय और कषायरूप भावशत्रु
का निग्रह करने से आवश्यक का एक नाम केवल निग्रह है। विशोधि-कर्म मलिन आत्मा को विशुद्ध करने वाला। अध्ययनषट्कवर्ग-सामायिक आदि छह अध्ययनों से युक्त। टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने
'अज्झयणछक्क' और 'वग्ग'-इन दोनों को अलग-अलग मानकर व्याख्या की है। उनके अनुसार सामायिक आदि छह अध्ययनों से युक्त होने के कारण आवश्यक का एक नाम
अध्ययनषट्क तथा रागादि दोषों को दूर से ही परिहार करने के कारण एक नाम वर्ग या वर्ज है। न्याय-अभीष्टार्थ की सिद्धि में सहायक। मलधारी हेमचन्द्र ने इसका वैकल्पिक अर्थ जीव और कर्म के
संबंध का अपनयन करने वाला भी किया है।' आराधना-मोक्ष की आराधना का हेतु। मार्ग-मोक्ष तक पहुंचाने का मार्ग । आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार आत्मालोचन और आत्मनिरीक्षण की ओर
ले जाने के कारण आवश्यक का एक नाम मार्ग है।
जो क्रोधादि कषायों को दूर कर ज्ञानादि गुणों से आत्मा को भावित या वशीभूत करता है, वह आवश्यक है। दिगम्बर मत के अनुसार जो राग तथा द्वेषादि विभावों के वशीभूत नहीं होता, वह अवश है, उस अवश का आचरण या कार्य आवश्यक कहलाता है। जो आत्मा में रत्नत्रय का वास कराती है, वह क्रिया आवश्यक है।' यद्यपि प्रतिक्रमण चौथा आवश्यक है लेकिन वर्तमान में पूरा आवश्यक सूत्र प्रतिक्रमण के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध है। आवश्यक का रचनाकाल
आवश्यक में जो शाश्वत आध्यात्मिक तत्त्व निबद्ध हैं, वे प्रवाह रूप से अनादि हैं। आवश्यक के कर्ता एवं रचनाकाल के बारे में इतिहास में कोई सामग्री नहीं मिलती। पंडित सुखलालजी के अनुसार आवश्यक सूत्र ईस्वी सन् से पूर्व पांचवीं शताब्दी से लेकर चौथी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में रचा होना चाहिए। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि ईस्वी सन् से पूर्व पांच सौ छब्बीसवें वर्ष में भगवान् महावीर का निर्वाण हुआ। वीर निर्वाण के २० वर्ष बाद सुधर्मा स्वामी का निर्वाण हुआ। आवश्यक सूत्र न तो तीर्थंकर की
१. अनुद्वाचू. पृ. १४, विभामहेटी. पृ. २०८।
६. (क) मूलाचार ५१५; २. विभामहेटी. पृ. २०८।
ण वसो अवसो अवसस्स कम्ममावस्सयं ति बोधव्वा। ३. विभामहेटी. पृ. २०८;सामायिकादिषडध्ययनात्मकत्वाद- (ख) नियमसार १४१;
ध्ययनषट्कम् । वृजी वर्जने वृज्यन्ते दूरतः परिहियन्ते जो ण हवदि अण्णवसो, तस्स हु कम्मं भणंति आवासं। रागादयो दोषा अनेनेति वर्गः।
कम्मविणासणजोगो, णिव्वुदिमग्गो त्ति णिज्जुत्तो। ४. विभामहेटी. पृ. २०८; जीवकर्मसम्बन्धापनयनाद् न्यायः। ७. भआटी पृ. ११६; । ५. अणुओगदाराई पृ. ३९ ।
आवासयं ति रत्नत्रयमपि इति आवश्यकाः। ८. दर्शन और चिंतन, खंड २ पृ. १९६।
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