Book Title: Agam 39 Mahanisiham Chattham Cheyasuttam Mulam PDF File
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 51
________________ परलोगपच्चवाएहिं कूर-कम्मनिग्धिणेहिं ! ति परम-संवेगमावन्ने, सुपरीफुडं आलोएत्ताणं निंदित्ताणं गरहेत्ताणं पायच्छित्तमनुचरेत्ताणं नीसल्ले अनाउलचित्ते असुर-कम्मक्खयट्ठा किंचि आय-हियं चिइवंदणाइ अनुट्ठेज्जा, तया तयट्ठे चेव उवउत्ते से भवेज्जा ! जया णं से तयत्थे उवउत्ते भवेज्जा तया तस्स णं परमेगग्ग-चित्तसमाही हवेज्जा, तया चेव सव्व - जग-जीव - पाण- भूय-सत्ताण जहिट्ठ-फलसंपत्ती-भवेज्जा | ता गोयमा ! णं अप्पडिक्कंताए इरियावहियाए न कप्पड़ चेव काउं किंचि चिइवंदनसज्झायाइयं फलासायमभिकंखुगाणं, एतेणं अट्ठेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जहा णं गोयमा ! ससुत्तत्थोभयं अज्झयणं-३, उद्देसो पंचमंगल-थिर-परिचियं काऊणं तओ इरियावहियं अज्झीए । [५९३] से भयवं ! कयराए विहीए तं इरियावहियमहिए ? गोयमा ! जहा णं पंचमंगल महासुयक्खंधं । [५९४] से भयवं इरियावहियमहिज्जित्ता णं तओ किमहिज्जे ? गोयमा! सक्कत्थयाइयं चेइय-वंदन-विहाणं नवरं सक्कत्थयं एगट्ठम - बत्तीसाए आयंबिलेहिं अरहंतत्थयं एगेणं चउत्थेणं तिहिं आयंबिलेहिं चउवीसत्थयं एगेणं छद्वेणं एगेण य चउत्थेणं पणुवीसाए आयंबिलेहिं नाणत्थयं एगेणं उत्थे पंचहिं आयंबिलेहिं, एवं सर - वंजण - मत्ता बिंदु - पयच्छेय-पयक्खर - विसुद्धं अविच्चामेलियं अहीएत्ताणं गोयमा ! तओ कसिणं सुत्तत्थं विन्नेयं जत्थ य संदेहं भवेज्जा तं पुणो पुणो वीमंसिय नीसंकमवधारेऊणं नीसंदेहं करेज्जा | [५९५] एवं स सुत्तत्थोभयत्तगं चिइ-वंदना-विहाणं अहिज्जेत्ता णं तओ सुपसत्थे सोहने तिहि-करण-मुहुत्त-नक्खत्त-जोग- लग्ग-ससी-बले, जहा सत्तीए जग-गुरूणं संपाइय-पूओवयारेणं पडिलाहियसाहुवग्गेण य भत्तिब्भरनिब्भरेणं रोमंच - कंचुपुलइज्जमाणतनू सहरिसविसट्ट वयणारविंदेणं सद्धा-संवेगविवेग-परम-वेरग्ग-मूलं विनिहय - घनराग-दोस- मोह-मिच्छत्त-मलकलंकेण, सुविसुद्ध - सुनिम्मल- विमल-सुभसुभयरऽनुसमय-समुल्लसंत-सुपसत्थज्झवसाय- गएणं भुवन- गुरु- जिनयंद पडिमा विनिवेसिय- नयन- मानसेणं अनन्न-मानसेगग्ग-चित्तयाए य, धन्नो हं पुन्नो हं ति जिन-वंदणाइ - सहलीकयजम्मो त्ति इइ मनमाने विरइय-कर-कमलंजलिणा हरिय-तण-बीय जंतु - विरहिय-भूमीए निहिओभय - जाणुणा सुपरिफुड- सुविइय-नीसंक जहत्थ-सुत्तत्थोभयं पए पर भावेमाणेणं, दढचरित्त-समयन्नु अप्पमायाइ-अनेग-गुण-संपओववेएणं गुरुणा सद्धिं साहु-साहुणि-साहम्मिय असेस- बंधु-परिवग्ग परियरिएणं चेव पढमं चेइए वंदियव्वे तयनंतरं च गुणड्ढे य साहुणो य । तहा साहम्मिय-जनस्स णं जहा सत्तीए पणावाए जाए णं सुमहग्घ मउय-चोक्ख-वत्थपयाणाइणा वा महासम्मणो कायव्वो, एयावसरम्मि सुविइय- समय-सारेण गुरुणा पबंधेणं अक्खेवविक्खेवाइएहिं, पबंधेहिं संसार - निव्वेय - जननिं सद्धा संवेगुप्पायगं धम्म- देसणं कायव्वं । [५९६] तओ परम-सद्धा-संवेगपरं नाऊणं आजम्माभिग्गहं च दायव्वं । जहा णं, सहलीकयसुलद्ध-मनुय भव भो भो देवाणुप्पिया ! तए अज्जप्पभितीए जावज्जीवंति - कालियं अनुदिनं अनुलावलेगग्गचित्तेणं चेइए वंदेयव्वे, इणमेव भो मनुयत्ताओ असुइ- असासय-खणभंगुराओ सारं ति, तत्थ पुव्वण्हे ताव उदग-पानं न कायव्वं जाव चेइए साहू य न वंदिए, तहा मज्झण्हे ताव असन-किरियं न [दीपरत्नसागर संशोधितः ] [50] [३९- महानिसीह]

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