Book Title: Agam 39 Mahanisiham Chattham Cheyasuttam Mulam PDF File
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar

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Page 52
________________ कायव्वं जाव चेइए न वंदिए, तहा अवरण्हे चेव तहा कायव्वं जहा अवंदिएहिं चेइएहिं नो संझायालमइक्कमेज्जा । [५९७] एवं चाभिग्गहबंधं काऊणं जावज्जीवाए, ताहे य गोयमा ! इमाए चेव विज्जाए अहिमंतियाओ सत्त-गंध-मुट्ठीओ तस्सुत्तमंगे नित्थारग पारगो भवेज्जासि ! त्ति उच्चारेमाणेणं गुरुणा धेतव्वाओ ...[वद्धमाण विज्जा]...... अओम् णम्ओ भगवओ अरहओ स्इज्झ उ म्ए भगवती महा विज् ज् आ | व् ई र ए म ह् आ व् ई र ए ज य व् ई र ए स् ए ण् अ व् ई र ए वद्ध म् आ ण व् ई र ए | ज य अं त् ए अ प र आ जइ एस व आ हा अज्झयणं-३, उद्देसो [ओम् नमो भगवओ अरहओ सिज्जउ मे भगवती महाविज्जा वीरे महावीरे जयवीरे सेणवीरे वद्धमाणवीरे जयंते अपराजिए स्वाहा) | उपचारो चउत्थभत्तेणं साहिज्जइ । एयाए विज्जाए सव्वगओ नित्थारगपारगो होइ । उवट्ठावणाए वा गणिस्स वा अणुन्नाए वा सत्त वारा परिजवेयव्वा नित्थारग-पारगो होइ । उत्तिमट्ठपडिवण्णे वा अभिमंतिज्जइ आराहगो भवति, विग्यविणायगा उवसमंति, सूरो संगामे पविसंतो अपराजिओ भवति, कप्प-समत्तीए मंगलवहणी खेमवहणी हवइ । [५९८] तहा साहु-साहुणि-समणोवासग-सढिगा उसेसा सण्ण-साहम्मियजन-चउव्विहेणं पि समण-संघेणं नित्थरग-पारगो भवेज्जा धन्नो संपन्न-सलक्खणो सि तुमं, ति उच्चारेमाणेणं गंध-मुट्ठीओ धेतव्वाओ, तओ जग-गुरुणं जिणिंदाणं पूएग-देसाओ गंधड्ढाऽमिलाण-सियमल्लदामं गहाय स-हत्थेणोभयखंधेसुमारोवयमाणेणं गुरुणा नीसंदेहमेवं भाणियव्वं जहा, भो भो ! जम्मंतर-संचिय-गुरुय-पुन्न-पब्भार सुलब्भ-सुविढत्त-सुसहल-मनुयजम्म! देवाणुप्पिया! ठड्यं च नरय-तिरिय-गइ-दारं तुज्झं ति । अबंधगो य अयस-अकित्ती-नीया-गोत्त-कम्म-विसेसाणं तुमं ति भवंतर-गयस्सा वि उ न दुलहो तुज्झ पंच नमोक्कारो, भावि-जम्मंतरेस् पंच-नमोक्कार-पभावाओ य जत्थ जत्थोववज्जेज्जा तत्थ तत्थुत्तमा जाई उत्तमं च कुलरूवरोग्ग-संपयं ति एयं ते निच्छयओ भवेज्जा | अन्नं च पंचनमोक्कार-पभावओ न भवइ दासत्तं न दारिद्द-दूहग हीनजोणियत्तं न विगलिंदियत्तं ति, किं बहुएणं गोयमा ! जे केइ एयाए विहीए पंच-नमोक्कारादि-सुयनाण-महीएत्ताण तयत्थानुसारेणं पयओ सव्वावस्सगाइ निच्चानुट्ठणिज्जेसु अट्ठारस-सीलंगसहस्सेसु अभिरमेज्जा से णं सरागत्ताए जइ णं न निव्वुडे, तओ गेवेज्जऽनुत्तरादीसुं चिरमभिरमेऊणेहउत्तम-कुलप्पसूई उक्किट्ठलट्ठसव्वंगसुंदरत्तं सव्वं-कला-पत्तट्ठ-जनामनानंदयारियत्तणं च पाविऊणं, सुरिंदे विव महरिद्धए एगतेणं च दयानुकंपापरे निविण्ण-काम-भोगे सद्धम्ममनुढेऊणं विय-रय-मले सिज्झेज्जा | [५९९] से भयवं! किं जहा पंचमंगलं तहा सामाइयाइयमसेसं पि सुयनाणमहिज्जिणेयव्वं ? गोयमा! तहा चेव विनओवहाणेणं महीएयव्वं नवरं अहिज्जिणिउकामेहिं अट्ठविहं चेव नाणायारं सव्वपयत्तेणं कालादी रक्खेज्जा, अन्नहा महया आसायणं ति, अन्नं च दुवालसंगस्स सुयनाणस्स पढमचरिमजाम-अहन्निसं अज्झयण-ज्झावणं पंचमंगलस्स सोलस-द्धजामियं च अन्नं च, पंच-मंगलं कयसामाइए इ वा अकय-सामाइए इ वा अहीए सामाइयमाइयं तु सुयं चत्तारंभपरिग्गहे जावज्जीवं कय दीपरत्नसागर संशोधितः] [51] [३९-महानिसीह

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