________________ प्रतिसेवना के दस प्रकार 1. दर्पप्रतिसेवना-अहंकारपूर्वक अकृत्य सेवन / 2. प्रमादप्रतिसेवना-निद्रादि पांच प्रकार के प्रमादवश अकृत्य सेवन / 3. अनाभोग प्रतिसेवना--विस्मृतिपूर्वक अनिच्छा से प्रकृत्य सेवन / 4. प्रातुरप्रतिसेवना-रुग्णावस्था में अकृत्य सेवन / 5. आपत्तिप्रतिसेवना-दुभिक्षादि कारणों से अकृत्य सेवन / 6. शंकित प्रतिसेवना-आशंका से प्रकृत्य सेवन / 7. सहसाकार प्रतिसेवना-अकस्मात् या बलात्कार से प्रकृत्य सेवन / 8. भयप्रतिमेवना-भय से अकृत्य सेवन / 9. प्रवषप्रतिसेवना-द्वेषभाव से अकृत्य सेवन / 10. विमर्शप्रतिसेवना-शिष्य की परीक्षा के निमित्त प्रकृत्य सेवन / ये प्रतिसेवनायें संक्षेप में दो प्रकार की हैं-दपिका और कल्पिका / राग-द्वेष पूर्वक जो अकृत्य सेवन किया जाता है वह दपिका प्रतिसेवना है। इस प्रतिसेवना से प्रतिसेवक विराधक होता है। राग-द्वेष रहित परिणामों से जो प्रतिसेवना हो जाती है या की जाती है वह कल्पिका प्रतिसेवना है। इसका प्रतिसेवक आराधक होता है। पाठ प्रकार के ज्ञानातिचार१. कालातिचार-अकाल में स्वाध्याय करना / 2. विनयातिचार-श्रुत का अध्ययन करते समय जाति और कुल मद से गुरु का विनय न करना। 3. बहुमानातिचार-श्रुत और गुरु का सन्मान न करना। 4. उपधानातिचार-श्रुत की वाचना लेते समय प्राचाम्लादि तपन करना। 5. निह्नवनाभिधानातिचार-गुरु का नाम छिपाना। 6. व्यंजनातिचार-हीनाधिक अक्षरों का उच्चारण करना। 7. अर्थातिचार-प्रसंग संगत अर्थ न करना / अर्थात विपरीत अर्थ करना। 8. उभयातिचार-हस्व की जगह दीर्घ उच्चारण करना, दीर्घ की जगह ह्रस्व उच्चारण करना / उदात्त __ के स्थान में अनुदात्त का और अनुदात्त के स्थान में उदात्त का उच्चारण करना / अतिक्रम, व्यतिक्रम और अतिचार ये तीन संज्वलन कषाय के उदय से होते हैं-इनकी शुद्धि आलोचनाह से लेकर तपोऽहंपर्यन्त प्रायश्चित्तों से होती है / छेद, मूला, अनवस्थाप्य और पारांचिक प्रायश्चित्त योग्य अतिचार और अनाचार शेष बारह कषायों (अनन्तानुबन्धी 4, अप्रत्याख्यानी 4, प्रत्याख्यानी 4) के उदय से होते हैं। 1. गाहा--रागद्दोसाणुगया, तु दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। प्राराधणा उ कप्पे, विराधणा होति दप्पेण // -बृह० उ०४ भाष्य माथा 4943 / 2. सव्वे वि अइयारा संजलणाणं उदयओ होंति // -अभि० कोष---'अइयार' शब्द / [30] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org