________________ 256] [बृहत्कल्पसूत्र छह प्रकार की कल्पस्थिति 20. छम्विहा कप्पट्टिई पण्णत्ता, तं जहा 1. सामाइय-संजय-कप्पट्टिई, 2. छेनोवट्ठावणिय-संजय-कप्पट्टिई, 3. निविसमाण-कप्पट्टिई, 4. निस्विटुकाइय-कप्पट्टिई, 5. जिणकप्पट्टिई, 6. थेरकप्पट्टिई। कल्प की स्थिति--आचार की मर्यादाएं छह प्रकार की कही गई हैं / यथा 1. सामायिकचारित्र की मर्यादाएं, 2. छेदोपस्थापनीयचारित्र की मर्यादाएं, 3. परिहारविशुद्धिचारित्र में तप वहन करने वाले की मर्यादाएं, 4. परिहारविशुद्धिचारित्र में गुरुकल्प व अनुपरिहारिक भिक्षुषों की मर्यादाएं, 5. गच्छनिर्गत विशिष्ट तपस्वी जीवन बिताने वाले जिनकल्पी भिक्षुओं की मर्यादाएं, 6. स्थविरकल्पी अर्थात् गच्छवासी भिक्षुओं की मर्यादाएं। विवेचन-यहां "कल्प" का अर्थ संयत का प्राचार है। उसमें अवस्थित रहना कल्पस्थिति कहा जाता है। निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों की समाचारी (मर्यादा) को भी कल्पस्थिति कहा जाता है। वह छह प्रकार की कही गई है। यथा 1. सामायिकसयत-कल्पस्थिति-समभाव में रहना और सभी सावध प्रवृत्तियों का परित्याग करना, यह सामायिकसंयत-कल्पस्थिति है। यह दो प्रकार की होती है 1. इत्वरकालिक-जब तक पंच महाव्रतों का आरोपण न किया जाए तब तक इत्वरकालिक सामायिक-कल्पस्थिति है। 2. यावज्जीविक-जीवनपर्यन्त रहने वाली सामायिक यावज्जीविक सामायिककल्पस्थिति है। जिसमें पुनः महावतारोपण न किया जाय, यह मध्यम तीर्थंकरों के शासनकाल में होती है / 2. छेदोपस्थापनीय-संयत-कल्पस्थिति बड़ी दीक्षा देना या पुनः महाव्रतारोपण करना। यह कल्पस्थिति दो प्रकार की होती है-- 1. निरतिचार-इत्वरसामायिक वाले शैक्षकों को अथवा भगवान् पार्श्वनाथ के शिष्यों को पंच महाव्रतों की प्रारोपणा कराना निरतिचार छेदोपस्थापनीय-संयत-कल्पस्थिति है। Jain Education International For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org