________________ दूसरा उद्देशक] [161 आयश्चित्त अन्य स्थान के न मिलने पर वहां एक रात विश्राम किया जा सकता है। अधिक आवश्यक हो तो दो रात्रि भी विश्राम किया जा सकता है / यह प्रापवादिक विधान गीतार्थों के लिये है अथवा गीतार्थ के नेतृत्व में अगीतार्थों के लिये भी है। दो रात्रि से अधिक रहने पर सूत्रोक्त मर्यादा का उल्लंघन होता है और उसका तप या छेद रूप प्रायश्चित्त आता है। 'से संतरा छेए वा परिहारे वा' इस सूत्रांश की टीका इस प्रकार है 'से-तस्य संयतस्य, 'स्वांतरात्' स्वस्वकृतं यदन्तरं-त्रिरात्र-चतुःरात्रादि कालं प्रवस्थानरूपं, तस्मात्, 'छेदो वा'-पंच रात्रि विवादिः, 'परिहारो वा'-मासलघुकादितपोविशेषो भवति इति सूत्रार्थः। इस टीका का भावार्थ यह है कि उस संयत के द्वारा तीन चार आदि दिनों के अवस्थान रूप किए हुए अपने दोष के कारण उसे तप रूप या छेद रूप यथोचित प्रायश्चित्त प्राता है। किन्तु से संतरा' शब्द का जितने दिन रहे उतने ही दिन का प्रायश्चित्त आवे ऐसा अर्थ करना उचित नहीं है। क्योंकि टीकाकार ने ऐसा अर्थ कहीं भी नहीं किया है। अतः टीकाकारसम्मत अर्थ ही करना चाहिए। जलयुक्त उपाश्रय में रहने का विधि-निषेध और प्रायश्चित्त 5. उवस्सयस्स अंतोवगडाए सोनोवग-वियडकुम्भे वा उसिणोदग-वियडकुम्भे वा उवनिक्खित्ते सिया, नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा अहालंदमवि वत्थए। हुरत्था य उवस्सयं पडिलेहमाणे नो लभेज्जा, एवं से कप्पइ एगरायं वा दुरायं वा वत्थए / नो से कप्पा परं एगरायानो वा दुरायाओ वा वत्थए / जे तत्थ एगरायाओ वा दुरायाओ वा परं बसइ, से सन्तरा छेए या परिहारे था। 5. उपाश्रय के भीतर अचित्त शीतल जल या उष्ण जल के भरे हुए कुम्भ रखे हों तो निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को वहां 'यथालन्दकाल' भी रहना नहीं कल्पता है। कदाचित् गवेषणा करने पर भी अन्य उपाश्रय न मिले तो उक्त उपाश्रय में एक या दो रात रहना कल्पता है, किन्तु एक या दो रात्रि से अधिक रहना नहीं कल्पता है / जो वहां एक या दो रात से अधिक रहता है वह मर्यादा-उल्लंघन के कारण दीक्षा-छेद या तप रूप प्रायश्चित्त का पात्र होता है। _ विवेचन-अग्नि पर उबालने से या क्षार आदि पदार्थों से जिसके वर्णादि का परिवर्तन हो गया है ऐसे प्रासुक ठण्डे जल के भरे हुए घड़े को शीतोदकविकृतकुम्भ कहते हैं। इसी प्रकार प्रासुक उष्ण जल के भरे हुए घड़े को उष्णोदकविकृतकुम्भ कहते हैं। जिस उपाश्रय में ऐसे (एक या दोनों ही प्रकार के) जल से भरे घड़े रखे हों, वहां पर साधु और साध्वियों को 'यथालन्दकाल' भी नहीं रहना चाहिए / विशेष विवेचन पूर्व सूत्र के अनुसार समझ लेना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org