________________ तीसरा उद्देशक [179 जो वस्त्र जिस क्षेत्र में दुर्लभ हो, उसे क्षेत्रकृत्स्न कहते हैं। एक देश का बना वस्त्र दूसरे देश में प्रायः बहुमूल्य एवं दुर्लभ होता है। जो वस्त्र जिस काल में महंगा मिले उसे काल कृत्स्न कहते हैं। जैसे ग्रीष्मकाल में सूती, रेशमी आदि पतले वस्त्र और शीतकाल में मोटे ऊनी गरम वस्त्र तथा वर्षाकाल में रंगीन वस्त्र बहुमूल्य हो जाते हैं। ___ भावकृत्स्न के दो भेद हैं---वर्णयुत और मूल्ययुत। इनमें वर्णयुत वस्त्र के कृष्ण, नील आदि वर्णों की अपेक्षा पांच भेद होते हैं। मूल्ययुत वस्त्र भी जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से तीन प्रकार का होता है। जहां पर जिसका मूल्य कम हो वहां वह जघन्य और जहां उसी का मूल्य अधिक हो, वहां वही उत्कृष्ट मूल्य का जानना चाहिए। जो वस्त्र सर्वत्र समान मूल्य से उपलब्ध हो वह मध्यम मूल्य वाला कहलाता है। अथवा जिस वस्त्र के धारण करने से रागभाव उत्पन्न हो उसे भावकृत्स्न कहते हैं / अर्थात् अति चमक-दमक वाले रमणीय वस्त्र / उक्त चारों ही प्रकार के कृत्स्नवस्त्र साधु या साध्वियों के लिए रखना या पहरना अयोग्य है। इनके रखने या पहरने के दोषों का निर्देश करते हुए भाष्यकार ने कहा है कि प्रमाणातिरिक्त वस्त्रों के रखने पर मार्ग-गमनकाल में भार वहन करना पड़ता है। अखण्ड, बहूमूल्य सूक्ष्म वस्त्रों को चोर-डाकू चुरा सकते हैं या अन्य कोई भी असंयमी छीन सकता है। एक राज्य से दूसरे राज्य में प्रवेश करने पर चुंगी वाले कर मांग सकते हैं या वस्त्र छीन सकते हैं। श्रावक ऐसे वस्त्रों को साधु के समीप देखकर उनसे घृणा या निन्दा कर सकता हैं / इत्यादि कारणों से चारों ही प्रकार के कृत्स्नवस्त्र साधु-साध्वी को नहीं कल्पते हैं / किन्तु जो द्रव्य से अल्प या प्रमाणोपेत हो, क्षेत्र और काल से सर्वत्र सुलभ हो और भाव से जो बहुमूल्य न हो, ऐसा वस्त्र ही उनको धारण करना चाहिए। साधु-साध्वी को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टफ धारण करने के विधि-निषेध 11. नो कप्पइ निग्गंथाणं उग्गहणन्तगं वा, उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा, परिहरित्तए वा। 12. कप्पइ निग्गंथोणं उग्गहणन्तर्ग वा, उग्गहपट्टगं वा धारित्तए वा, परिहरित्तए वा। 11. निर्ग्रन्थों को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक रखना या उसका उपयोग करना नहीं कल्पता है। 12. निर्ग्रन्थियों को अवग्रहानन्तक और अवग्रहपट्टक रखना या उसका उपयोग करना कल्पता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org