Book Title: Agam 25 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 134
________________ 180] [गृहत्कल्पसूत्र विवेचन--गुप्त अंग के ढकने वाले लंगोट या कौपीन को अवग्रहानन्तक कहते हैं और उसके भी ऊपर उसे आच्छादन करने वाले वस्त्र को अवग्रहपट्टक कहते हैं। प्रथम सूत्र में साधुओं के लिए इन दोनों का निषेध किया गया है और दूसरे सूत्र में साध्वियों के लिए इन दोनों के रखने और पहिनने का विधान किया गया है। यद्यपि सूत्र में उक्त दोनों उपकरण भिक्षु को रखने का स्पष्ट निषेध है, तथापि भाष्यकार ने लिखा है कि यदि किसी साधु को भगन्दर, अर्श प्रादि रोग हो जाए तो उस अवस्था में अन्य वस्त्रों को रक्त-पीप से बचाने के लिए वह अवग्रहपट्टक रख सकता है। साध्वियों को दोनों उपकरण रखने का और पहिनने का कारण यह है कि ऋतुकाल में साध्वियों को प्रोढ़ने-पहिनने के वस्त्र रक्त-रंजित न हों, अतः उस समय उक्त दोनों वस्त्रों को उपयोग में लाने और शेष काल में समीप रखने का विधान किया गया है। विहार आदि में शीलरक्षा के लिये भी इन उपकरणों का पहनना आवश्यक होता है। प्रश्न-साध्वियों के लिए कितने वस्त्र-पात्रादि रखने का विधान है ? उत्तर-नियुक्ति और भाष्यकार ने 25 प्रकार की उपधि रखने का निर्देश किया है-- उनके नाम इस प्रकार हैं--१. पात्र, 2. पात्रबन्ध, 3. पात्रस्थापन, 4. पात्रकेसरिका, 5. पटलक, 6. रजस्त्राण, 7. गोच्छक, 8-10. तीन चादर (प्रच्छादक वस्त्र), 11. रजोहरण, 12. मुखवस्त्रिका, 13. मात्रक, 14. कमढक (चोलपट्टकस्थानीय वस्त्र, शाटिका), 15. अवग्रहानन्तक (गुह्यस्थानाच्छदक-लंगोटी), 16. अवग्रहपट्टक (लंगोटी के ऊपर कमर पर लपेटने का वस्त्र), 17. अोसक (ग्राधी जांघों को ढकने वाला जांघिया जैसा वस्त्र), १८.चलनिका (अर्धासक से बड़ा, घुटनों को भी ढंकने वाला वस्त्र), 19. अभ्यन्तर निवसिनी (प्राधे घुटनों को ढकने वाली), 20. बहिर्निवसनी (पैर की एड़ियों को ढकने वाली), 21. कंचुक (चोली), 22. औपकक्षिकी . (चोली के ऊपर बांधी जाने वाली), 23. वैकक्षिको (कंचुक और प्रौपकक्षिकी को ढकने वाली), 24. संघाटी (वसति में पहने जाने वाली), 25. स्कन्धकरणी (कन्धे पर डालने का वस्त्र)। इस प्रकार आर्यिकायों के 25 उपधि या उपकरण होते हैं। भाष्यकार ने स्कन्धकरणी के साथ रूपवती साध्वियों को कुब्ज-करणी रखने या बांधने का भी विधान किया है। इसका अभिप्राय यह है कि रूपवती साध्वी को देखकर कामुक पुरुष चल-चित्त हो सकते हैं, अत: रूपवती साध्वी को विकृतरूपा बनाने के लिए पीठ पर वस्त्रों की पोटली रखकर बांध देते है, जिससे कि वह कुबड़ी-सी दिखने लगे / इसी कारण इस उपधि का नाम कुब्ज-करणी रखा गया है। ___ इसके अतिरिक्त साधु और साध्वी कम से कम और अधिक से अधिक कितने वस्त्र-उपधि रख सकते हैं, भाष्यकार ने इसका तथा अन्य अनेक ज्ञातव्य विषयों का और करणीय कार्यों का भी वर्णन किया है / वह सब विशेष जिज्ञासु जनों को सभाष्य बृहत्कल्पसूत्र से जानना चाहिए / साध्वी को अपनी निश्रा से वस्त्र ग्रहण करने का निषेध 13. निग्गंथीए य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविटाए चेलठे समुप्पज्जेज्जा नो से कप्पइ अप्पणो निस्साए चेलं पडिग्गाहेत्तए / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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