________________ 206] [बृहत्कल्पसूत्र तं अप्पणा भुजमाणे, अन्नेसि वा दलमाणे, आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं उग्घाइयं / 17. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को प्रशन यावत् स्वादिम आहार अर्धयोजन की मर्यादा से आगे रखना नहीं कल्पता है / कदाचित् वह प्राहार रह जाय तो उस आहार को स्वयं न खाए और न अन्य को दे, किन्तु एकान्त और सर्वथा अचित्त भूमि का प्रतिलेखन एवं प्रमार्जन कर उस आहार को यथाविधि परठ देना चाहिए। यदि उस आहार को स्वयं खाए या अन्य निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को दे तो उसे उद्घातिकचातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता है। विवेचन-भिक्ष अपने उपाश्रय से दो कोस दूर के क्षेत्र से प्रशनादि ला सकता है एवं विहार करके किसी भी दिशा में दो कोस तक आहार-पानी आदि ले जा सकता है। उसके आगे भूल से ले भी जाए तो जानकारी होने पर उसे खाना या पीना नहीं कल्पता है, किन्तु परठना कल्पता है / आगे ले जाने पर आहारादि सचित्त या दूषित तो नहीं हो जाते हैं, किन्तु यह आगमोक्त क्षेत्र-सीमा होने से इसका पालन करना आवश्यक है। दो कोस के चार हजार धनुष होते हैं, जिसके चार माइल या सात किलोमीटर लगभग क्षेत्र होता है / इतने क्षेत्र से आगे आहार-पानी एवं औषध-भेषज कोई भी खाद्यसामग्री नहीं ले जानी चाहिए। अनाभोग से ग्रहण किये अनेषणीय आहार की विधि 15. निग्गंथेण य गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पविद्रेणं अन्नयरे प्रचित्ते अणेसणिज्जे पाणभोयणे पडिगाहिए सिया। अस्थि य इत्थ केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, कप्पइ से तस्स दाउं वा अणुप्पदाउं वा। नत्थि य इत्य केइ सेहतराए अणुवट्ठावियए, तं नो अप्पणा भुजेज्जा, नो अन्नेसि दावए, एगन्ते बहुफासए पएसे पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्टवेयवे सिया। 18. आहार के लिए गृहस्थ के घर में प्रविष्ट निर्ग्रन्थ के द्वारा कोई दोषयुक्त अचित्त आहारपानी ग्रहण हो जाय तो-- ___ वह अाहार यदि कोई वहाँ अनुपस्थापित शिष्य हो तो उसे देना या एषणीय प्राहार देने के बाद में देना कल्पता है। यदि कोई अनुपस्थापित शिष्य न हो तो उस अनेषणीय आहार को न स्वयं खाए और न अन्य को दे किन्तु एकान्त और अचित्त प्रदेश का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर यथाविधि परठ देना चाहिए। विवेचन-इत्वरिक दीक्षा देने के पश्चात् जब तक यावज्जीवन की दीक्षा नहीं दी जाता है, तब तक उस नवदीक्षित साधु को 'अनुपस्थापित शैक्षतर' कहा जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org