________________ 220] [बृहत्कल्पसूत्र अस्थि य इत्य केइ सागारियसंतिए उवगरणजाए अचित्ते परिहरणारिहे कम्पइ से सागारिकडं गहाय तं सरीरगं एगते बहुफासुए पएसे परिट्ठवेत्ता तत्थेव उवनिक्खिवियव्वे सिया। 29. यदि किसी भिक्षु का रात्रि में या विकाल में निधन हो जाय तो उस मृत भिक्षु के शरीर को कोई वैयावृत्य करने वाला साधु एकान्त में सर्वथा अचित्त प्रदेश पर परठना चाहे तब-- यदि वहां उपयोग में पाने योग्य गृहस्थ का अचित्त उपकरण अर्थात् वहन योग्य काष्ठ हो तो उसे प्रातिहारिक (पुनः लौटाने का कहकर) ग्रहण करे और उससे मृत भिक्षु के शरीर को एकान्त में सर्वथा अचित्त प्रदेश पर परठ कर उस वहन-काष्ठ को यथास्थान रख देना चाहिए। विवेचन-भिक्षु जहां पर मासकल्प आदि रहा हो वहां उस निवासकाल में यदि भक्तप्रत्याख्यानी साधु का, रुग्ण साधु का अथवा सांप आदि के काटने से किसी अन्य साधु का मरण हो जाय तो उस शव को वसति या उपाश्रय में अधिक समय रखना उचित नहीं है, क्योंकि भाष्यकार कहते हैं कि जिस समय मरण हो उसी समय उस शव को बाहर कर देना चाहिए / अतः वहां वयावृत्य करने वाले साधु यदि चाहें तो वे रात्रि में भी परठने योग्य भूमि पर ले जाकर परठ सकते हैं / परठने के लिये प्रातिहारिक उपकरण की याचना करने का सूत्र में विधान किया गया है / अत: उस नामादि में या उपाश्रय में वहनकाष्ठ या बांस अथवा डोलो अथवा आदि जो भी मिल जाए उसका उपयोग किया जा सकता है एवं पुन: उस उपकरण को लौटाया जा सकता है। पादपोपगमन संथारा वाले के शरीर का दाहसंस्कार तो किया ही नहीं जाता है। किन्तु भक्तप्रत्याख्यान संथारे में दाहसंस्कार का विकल्प भी है। जहां कोई भी दाहसंस्कार करने वाले न हों वहां साधु द्वारा इस सूत्रोक्त विधि के अनुसार किया जाता है, ऐसा समझना चाहिए / क्योंकि भिक्षु तो दाहसंस्कार की प्रारंभजन्य प्रवृति का संकल्प भी नहीं कर सकते। किन्तु जहां श्रावकसंघ हो या अन्य श्रद्धालु गृहस्थ हों वहां वे सांसारिक कृत्य समझकर कुछ लौकिक क्रियाएँ करें तो भिक्षु उससे निरपेक्ष रहते हैं। तीर्थकर एवं अन्य अनेक कालधर्मप्राप्त भिक्षुओं के दाहसंस्कार किये जाने का वर्णन आगमों में भी है / अतः भक्तप्रत्याख्यानमरण वाले भिक्षुत्रों की अन्तिम क्रियाओं के दोनों ही विकल्प हो सकते हैं, यथा 1. साधु के द्वारा परठना या 2. गृहस्थ द्वारा दाहसंस्कार करना। भाष्यकार ने शव को परठने योग्य दिशांत्रों का भी वर्णन किया है / साधुओं के निवासस्थान से दक्षिण-पश्चिमदिशा (नैऋत्यकोण) शव के परठने के योग्य शुभ बतलायी है। इस दिशा में परठने पर संघ में समाधि रहती है / यदि उक्त दिशा में परठने योग्य स्थान न मिले तो दक्षिण दिशा में शव को परठे और उसमें योग्य स्थान न मिलने पर दक्षिण-पूर्व दिशा में परठे। शेष सब दिशाएं शवपरित्याग करने के लिए अशुभ बतलायी गई हैं। उन दिशाओं में शव परठने पर संघ में कलह, भेद और रोगादि की उत्पत्ति सूचित की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org