Book Title: Agam 25 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 181
________________ चौया उद्देशक] [227 लिये समाधिकारक होता है। इसलिए योग्य ऊंचाई वाली छत हो, ऐसे मकान में ही यथासम्भव ठहरना चाहिए। चौथे उद्देशक का सारांश सूत्र 1 हस्तकर्म, मैथुनसेवन एवं रात्रिभोजन का अनुद्घातिक प्रायश्चित्त पाता है। तीन प्रकार के दोष सेवन करने पर पारांचिक प्रायश्चित्त पाता है। तीन प्रकार के दोष सेवन करने पर अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त आता है। तीन प्रकार के नपुंसकों को दीक्षित, मुडित या उपस्थापित करना आदि नहीं कल्पता। 10-11 तीन अवगुण वाले को वाचना नहीं देना चाहिए, किन्तु तीन गुण वाले को वाचना देना योग्य है। 12-13 तीन प्रकार के व्यक्तियों को समझाना कठिन होता है और तीन प्रकार के व्यक्तियों को समझाना सरल 14-15 सेवा करने वाले के अभिप्राय से स्पर्श आदि करने पर भिक्षु मैथुन सेवन के संकल्प युक्त सुखानुभव करे तो उसे चतुर्थ व्रत के भंग होने का प्रायश्चित्त पाता है। प्रथम प्रहर में ग्रहण किया आहार-पानी चतुर्थ प्रहर में नहीं रखना। दो कोस से आगे आहार-पानी नहीं ले जाना। अनाभोग से ग्रहण किये अनेषणीय आहारादि को नहीं खाना, किन्तु अनुपस्थापित नवदीक्षित भिक्षु खा सकता है। प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधुओं को कोई भी प्रौद्देशिक आहार ग्रहण करना नहीं कल्पता है, अन्य तीर्थंकर के साधुओं को कल्पता है। अन्य गण में अध्ययन करने हेतु, गणपरिवर्तन करने हेतु एवं अध्ययन कराने हेतु जाना हो तो प्राचार्य आदि की आज्ञा लेकर सूत्रोक्त विधि से कोई भी साधु या पदवीधर जा सकता है। कालधर्मप्राप्त भिक्षु को उसके सार्मिक साधु प्रतिहारिक उपकरण लेकर गांव के बाहर एकान्त में परठ सकते हैं। क्लेश को उपशांत किये बिना भिक्षु को गोचरी आदि नहीं जाना चाहिये / क्लेश को उपशांत करने पर यथोचित प्रायश्चित्त ही देना एवं लेना चाहिए। प्राचार्य परिहारतप वहन करने वाले को साथ ले जाकर एक दिन गोचरी दिलवाए, बाद में आवश्यक होने पर ही वैयावृत्य आदि कर सकते हैं। अधिक प्रवाह वाली नदियों को एक मास में एक बार से अधिक बार पार नहीं करना चाहिए, किन्तु जंघार्ध प्रमाण जलप्रवाह वाली नदी को सूत्रोक्त विधि से एक मास में अनेक बार भी पार किया जा सकता है। 20-28 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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