Book Title: Agam 25 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Kanhaiyalal Maharaj, Trilokmuni, Devendramuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

Previous | Next

Page 188
________________ 234] [बृहत्कल्पसूत्र जैसे कड़ाही में मात्रा से कम दूध आदि ओंटाया या रांधा जाता है तो वह उसके भीतर ही उबलता पकता रहता है, बाहर नहीं आता किन्तु जब कड़ाही में भर-पूर दूध या अन्य कोई पदार्थ भर कर ओंटाया या पकाया जाता है तब उसमें उबाल आकर कड़ाही से बाहर निकल जाता है और कभी तो वह चूल्हे की आग तक को बुझा देता है। इसी प्रकार मर्यादा से अधिक आहार करने में उद्गाल आ जाता है और कम आहार करने से उद्गाल नहीं पाता है / ऐसा ही प्रायश्चित्तसूत्र निशीथ उ. 10 में भी है। संसक्त आहार के खाने एवं परठने का विधान 11. निरगंथस्स य गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविद्धस्स अंतो पडिग्गहंसि पाणाणि वा, बीयाणि वा, रए वा परियावज्जेज्जा, तं च संचाएइ विगिचित्तए वा विसोहित्तए था, तं पुव्यामेव विगिचिय विसोहिय, तो संजयामेव भुजेज्ज वा, पिएज्ज वा। तं च नो संचाएइ विगिचित्तए वा, विसोहित्तए वा, तं नो अप्पणो भुजेज्जा, नो अन्नेसि दावए, एगते बहुफासुए थंडिले पडिलेहित्ता पमज्जित्ता परिट्ठवेयव्वे सिया। 11. गृहस्थ के घर में श्राहार-पानी के लिए प्रविष्ट हुए साधु के पात्र में कोई प्राणी, बीज या सचित्त रज पड़ जाए और यदि उसे पृथक किया जा सके, विशोधन किया जा सके तो उसे पहले पृथक करे या विशोधन करे, उसके बाद यतनापूर्वक खावे या पीवे / यदि उसे पृथक् करना या विशोधन करना सम्भव न हो तो उसका न स्वयं उपभोग करे और न दूसरों को दे, किन्तु एकांत और प्रासुक स्थंडिल-भूमि में प्रतिलेखन प्रमार्जन करके परठ दे। विवेचन-गोचरी के लिए गए हुए साधु या साध्वी को सर्वप्रथम आहार देने वाले व्यक्ति के हाथ में लिए हुए अन्नपिंड का निरीक्षण करना चाहिए कि यह शुद्ध है या नहीं। जीवादि तो उसमें नहीं हैं ? यदि शुद्ध एवं जीवरहित दिखे तो ग्रहण करे, अन्यथा नहीं / देख कर या शोध कर यतना से ग्रहण करते हुए उक्त अन्न-पिंड के पात्र में दिये जाने पर पुनः देखना चाहिए कि पात्र में अन्नपिंड देते समय कोई मक्खी आदि तो नहीं दब गई है, या ऊपर से पाकर तो नहीं बैठ गई है, या अन्य कोड़ी आदि तो नहीं चढ़ गई है ? यदि साधु या साध्वी इस प्रकार सावधानीपूर्वक निरीक्षण न करे तो लधुमास के प्रायश्चित्त का पात्र होता है। कदाचित् गृहस्थ द्वारा आहार देते समय साधु का उपयोग अन्यत्र हो और गृहस्थ के घर से निकलते ही उसका ध्यान पाहार की ओर जावे कि मैं पात्र में लेते समय जीवादि का निरीक्षण नहीं कर पाया हूं तो सात कदम जाए जितने समय के भीतर ही किसी स्थान पर खड़े होकर उसका निरीक्षण करना चाहिए। यदि उपाश्रय समीप हो तो वहां जाकर निरीक्षण करना चाहिए और निरीक्षण करने पर यदि स प्राणी चलते-फिरते दीखे तो उन्हें यतना से एक-एक करके बाहर निकाल देना चाहिए / इसी प्रकार यदि आहार में मृत जीव दीखे या सचित्त बीजादि दीखे अथवा सचित्त-पत्रादि से मिश्रित . आहार दीखे और उनका निकालना संभव हो तो विवेकपूर्वक निकाल देना चाहिए। यदि उनका निकालना संभव न हो तो उसे एकान्त निर्जीव भूमि पर परठ देना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195 196 197 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217