________________ 24] [बृहत्कल्पसूत्र 15-32 33-44 45 रात्रिभोजन का विवेक एवं उसके प्रायश्चित्त का, संसक्त आहार के विवेक का, निर्ग्रन्थी को एकाकी न होने का एवं शरीर को न वोसिराने का, आतापना लेने के / कल्प्याकल्प्य का और प्रतिज्ञाबद्ध आसन न करने का, अनेक उपकरणों के कल्प्याकल्प्य का, परस्पर मूत्र-उपयोग के कल्प्याकल्प्य का, परिवासित आहार एवं औषध के कल्प्याकल्प्य का, परिहारिक भिक्षु के अतिक्रमण करने का, पौष्टिक आहार का, इत्यादि विषयों का कथन किया गया है। // पांचवां उद्देशक समाप्त // 46-48 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org