________________ 240] [बृहत्कल्पसूत्र सूत्र 26 से 33 तक कहे गये पाठ आसन भी साध्वी को समय निश्चित करके करना निषिद्ध है। इन आसनों का स्वरूप दशा. दशा. 7 में किया गया है, वहां से समझा जा सकता है / ::. भाष्यकार ने इन सभी साधनाओं के निषेध का कारण यह बताया है कि उस दशा में कामप्रेरित तरुण जनों के द्वारा उपसर्गादि की सम्भावना रहती है / निश्चित समय पूर्ण होने के पूर्व वह सम्भल कर सावधान नहीं हो सकती है। समय निर्धारित किये बिना साध्वी किसी भी आसन से खड़ी रहे, बैठे या सोए तो उसका इन सूत्रों में निषेध नहीं है / भाष्य में भी कहा है-- बीरासण गोदोही मुत्तुसम्वे वि ताण कम्पति / ते पुण पडुच्च चेट्ट, सुत्ता उ अभिग्गहं पप्पा / / 5956 // वीरासन और गोदोहिकासन को छोड़कर प्रवृत्ति की अपेक्षा सभी आसन साध्वी को करने कल्पते हैं / सूत्रों में जो निषेध किया है वह अभिग्रह की अपेक्षा से किया है। वीरासन और गोदुहिकासन ये स्त्री की शारीरिक समाधि के अनुकूल नहीं होते हैं, इसी कारण से भाष्यकार ने निषेध किया है / यद्यपि अभिग्रह आदि साधनाएं विशेष निर्जरा के स्थान हैं, फिर भी साध्वी के लिये ब्रह्मचर्य महाव्रत की सुरक्षा में बाधक होने से इनका निषेध किया गया है। भाष्य में विस्तृत चर्चा सहित इस विषय को स्पष्ट किया गया है तथा वहां अगीतार्थ भिक्षुत्रों को भी इन अभिग्रहों के धारण करने का निषेध किया है। आकुचनपट्टक के धारण करने का विधि-निषेध 33. नो कप्पइ निग्गंथीणं आकुचणपट्टगंधारित्तए वा, परिहरित्तए वा। 34. कप्पइ निग्गंथाणं आकुचणपट्टगंधारित्तए वा, परिहरित्तए वा। 33. निर्ग्रन्थियों को प्राकुचनपट्टक रखना या उपयोग में लेना नहीं कल्पता है / 34. निर्ग्रन्थों को प्राकुचनपट्टक रखना या उपयोग में लेना कल्पता है / विवेचन--'प्राकुचनपट्टक' का दूसरा नाम 'पर्यस्तिकापट्टक' है। यह चार अंगुल चौड़ा एवं शरीरप्रमाण जितना सूती वस्त्र का होता है। भीत आदि का सहारा न लेना हो तब इसका उपयोग किया जाता है। जहां दीवार आदि पर उदई आदि जीवों की सम्भावना हो और वृद्ध ग्लान आदि का अवलम्बन लेकर बैठना आवश्यक हो तो इस पर्यस्तिकापट्ट से कमर को एवं घुटने ऊंचे करके पैरों को बाँध देने पर आराम कुर्सी के समान अवस्था हो जाती है और दीवार का सहारा लेने के समान शरीर को आराम मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org