________________ चौथा उद्देशक] [219 उन्हें कारण बताए बिना अन्य आचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना नहीं कल्पता है। किन्तु उन्हें कारण बताकर ही अन्य प्राचार्य या उपाध्याय को वाचना देने के लिये जाना कल्पता है। विवेचन-प्रथम सूत्रत्रिक में अध्ययन हेतु कुछ समय के लिये अन्य गण में जाने की विधि कही है। द्वितीय सूत्रत्रिक में संयम-समाधि एवं चित्त-समाधि हेतु संभोग के लिये अन्य गण में जाने की विधि कही है। तृतीय सूत्रत्रिक में 'उद्दिसावित्तए' क्रिया का प्रयोग करके अन्य प्राचार्य, उपाध्याय को अपनी उपसंपदा धारण करवाने के लिये जाने का कथन किया गया है / इस तृतीय सूत्रत्रिक में 'जत्युत्तरियं धम्मविणयं लभेज्जा' यह विकल्प न होने से अन्यगण में सदा के लिए सर्वथा जाने का कथन नहीं है। सदा के लिए जाने का कथन दूसरे त्रिक में किया गया है और अध्ययन करने के लिए उपसंपदा धारण करना प्रथम त्रिक में कहा गया है। अत: इस तृतीय त्रिक में अध्ययन करवाने (आदि) के लिये अन्य गण में जाने का अर्थ करना हो प्रसंगसंगत है / सूत्र में अंतिम विकल्प है 'कप्पइ तेसि कारणं दीवेत्ता' इसका तात्पर्य यह है कि अध्ययन कराने के लिये जाने में ऐसा क्या विशिष्ट कारण है, इसका स्पष्टीकरण करना आवश्यक होता है / क्योंकि विशिष्ट कारणयुक्त परिस्थिति न हो तो अध्ययन कराने वाले का जाना व्यावहारिक रूप से शोभाजनक नहीं है किन्तु अध्ययन करने वाले का पाना ही उचित होता है। अध्ययन कराने हेतु जाने के कुछ कारण-- 1. किसी गच्छ के नये बनाये गये प्राचार्य को श्रुत-अध्ययन करना आवश्यक हो एवं गच्छ का भार अन्य को सौंप कर पाना संभव न हो। 2. किसी गच्छ का नया बनाया गया प्राचार्य किसी का पुत्र-पौत्र-दुहित्र आदि हो एवं उसके अध्ययनार्थ आने की परिस्थिति न हो / 3. किसी गच्छ का प्राचार्य किसी विकट या उलझनभरी परिस्थिति में हो और वह किसी साधु का पूर्व उपकारी हो। इत्यादि परिस्थितियों में किसी का जाना आवश्यक हो सकता है। इसी प्राशय से इस तृतीय सूत्रत्रिक का कथन किया गया है, ऐसा समझना उचित है। फाल-गत भिक्षु के शरीर को परठने की विधि 29. भिक्खू या राओ वा वियाले वा आहच्च वीसुभेज्जा, तं च सरीरगं केइ वेयावच्चकरे भिक्खू इच्छेज्जा एगते बहुफासुए पएसे परिद्ववेत्तए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org