________________ तीसरा उद्देशक] [183 किन्तु पूर्वग्रहीत वस्त्रों को लेकर प्रवजित होना कल्पता है / विवेचन सामायिकचारित्र एवं छेदोपस्थापनीयचारित्र ग्रहण करने वाला भिक्षु किन-किन उपधियों को लेकर दीक्षा ले, यह इस सूत्र में बताया गया है। जो सर्वप्रथम दीक्षित हो रहा है उसे अपने अभिभावकों द्वारा या सगे-सम्बन्धियों द्वारा दिये हुए रजोहरण, गोच्छक (प्रमार्जनिका), पात्र और तीन कृत्स्नवस्त्र लेकर दीक्षा लेना चाहिए। एक हाथ चौड़े और चौबीस हाथ लम्बे थान को कृत्स्नवस्त्र माना जाता है / इसका अर्थ यह है कि वह रजोहरण आदि उपकरणों के साथ कुल बहत्तर हाथ लम्बे हों, ऐसे तीन थान लेकर के दीक्षित होवे / इसके पश्चात् जब उसकी बड़ी दीक्षा हो या किसी व्रत-विशेष में दूषण लग जाने पर या किसी महाव्रत को विराधना हो जाने पर पुनः दीक्षा के लिए प्राचार्य के सम्मुख उपस्थित हो तो वह अपने पूर्वगृहीत वस्त्र-पात्रादि के साथ ही दीक्षा ले सकता है, अर्थात् पहले के वस्त्र-पात्रादि को छोड़कर नवीन वस्त्र-पात्रादि के लेने की उसे आवश्यकता नहीं है / उपधि सम्बन्धी विस्तृत जानकारी के लिए निशीथ उ. 16, सू. 39 का विवेचन देखें। दीक्षा लेने वाली साध्वी के उपकरणों का वर्णन भी इसी प्रकार है किन्तु तीन कृत्स्नवस्त्र के स्थान पर उनके चार कृत्स्नवस्त्र होते हैं। क्योंकि उनके वस्त्र सम्बन्धी उपकरण कुछ अधिक होते हैं। तीन या चार अखण्ड वस्त्र का स्पष्टार्थ भाष्य टीका में उपलब्ध नहीं है। अत: भिन्न-भिन्न अर्थों की परम्पराएँ प्रचलित हैं। 72 हाथ वस्त्र माप की कल्पना भी अधिक प्राचीन नहीं है तथापि आगम-आशय के अधिक निकट है ऐसा प्रतीत होता है। प्रथम द्वितीय समवसरण में वस्त्र ग्रहण करने का विधि निषेध 16. नो कप्पह निग्गंथाण या निग्गंथीण वा--पढमसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिगाहेत्तए / 17. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा-दोच्चसमोसरणुद्देसपत्ताई चेलाई पडिगाहेत्तए। 16. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को प्रथम समवसरण में वस्त्र ग्रहण करना नहीं कल्पता है। 17. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को द्वितीय समवसरण में वस्त्र ग्रहण करना कल्पता है / विवेचन-समवसरण शब्द का अर्थ है-सर्व अोर से पाना। चातुर्मास करने के लिए साधुसाध्वियां किसी एक योग्य स्थान पर पाकर स्थित होते हैं, अतः उसे प्रथम समवसरण कहा जाता है और वर्षाकाल या चातुर्मास की समाप्ति के पश्चात् के काल को द्वितीय समवसरण कहा जाता है। जिस स्थान पर साधु और साध्वियों को चातुर्मास करना है उस स्थान पर आने के पश्चात् पूरे वर्षाकाल तक अर्थात् प्राषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा से लेकर कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा तक गृहस्थों से वस्त्र लेना नहीं कल्पता है। किन्तु वर्षाकाल के बाद दूसरे समवसरण में अर्थात् मार्गशीर्ष कृष्णा प्रतिपदा से लेकर आषाढ़ शुक्ला पूर्णिमा पर्यन्त पाठ मास तक जिस देश और जिस काल में उन्हें यदि वस्त्रों की आवश्यकता हो तो गृहस्थों से ले सकते हैं / चातुर्मास सम्बन्धी अन्य सभी ज्ञातव्य बातों का विशद वर्णन नियुक्तिकार और भाष्यकार ने किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org