________________ 184] [बृहत्कल्पसूत्र यथारत्नाधिक वस्त्र ग्रहण का विधान 18. कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथोण वा--अहाराइणियाए चेलाई पडिग्गाहित्तए / 18. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चारित्रपर्याय के क्रम से वस्त्र-ग्रहण करना कल्पता है / विवेचन-जिस साधु या साध्वी की चारित्रपर्याय अधिक हो उसे रात्तिक या रत्नाधिक कहते हैं। जब कभी साधु या साध्वी वस्त्रों को गहस्थ से लेवें तो उन्हें चारित्रपर्याय की हीनाधिकता के क्रमानुसार ही ग्रहण करना चाहिए। अर्थात् जो साधु या साध्वी सबसे अधिक चारित्रपर्याय वाले हैं, उन्हें सर्वप्रथम वस्त्र प्रदान करना चाहिए। तत्पश्चात् उनसे कम चारित्रपर्याय वाले को और तदनन्तर उनसे कम चारित्रपर्याय वाले को देना चाहिए। यहां पर वस्त्र पद देशामर्शक है, अत: पात्रादि अन्य उपधियों को भी चारित्रपर्याय की हीनाधिकता से लेना और देना चाहिए। क्योंकि व्युत्क्रम से देने या लेने में रत्नाधिकों का अविनय, आशातना आदि होती है, जो साधु-मर्यादा के प्रतिकूल है / व्युत्क्रम से देने और लेने वाले साधु-साध्वियों के लिए भाष्यकार ने प्रायश्चित्त का विधान किया है। यथारत्नाधिक शय्या-संस्तारक ग्रहण का विधान 19. कप्पइ निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा अहारायणियाए सेज्जा-संथारए पडिग्गाहित्तए / 19. निर्ग्रन्थों और निर्ग्रन्थियों को चारित्रपर्याय के क्रम से शय्या-संस्तारक ग्रहण करना कल्पता है। विवेचन शय्या का अर्थ वसति या उपाश्रय है। उसमें ठहरने पर साधुओं या साध्वियों के वैठने योग्य स्थान एवं पाट, धास आदि को संस्तारक कहते हैं / इन्हें भी चारित्रपर्याय की हीनाधिकता के क्रम से ग्रहण करना चाहिए / नियुक्तिकार और भाष्यकार ने यथारानिक शय्या-संस्तारक का विधान करते हुए इतना और स्पष्ट किया है कि प्राचार्य, उपाध्याय और प्रवर्तक इन तीन गुरुजनों की क्रमशः शय्या-संस्तारक के पश्चात् ज्ञानादि सम्पदा को प्राप्त करने के लिए जो अन्य गण से साधु आया हुआ है, उसके शय्यासंस्तारक को स्थान देना चाहिए। उसके बाद ग्लान (रुग्ण) साधु को, तत्पश्चात् अल्प उपधि (वस्त्र) वाले साधु को, उसके बाद कर्मक्षयार्थ उद्यत साधु को, तदनन्तर जिसने रातभर वस्त्र नहीं प्रोढ़ने का अभिग्रह लिया है ऐसे साधु को, तदनन्तर स्थविर को, तदनन्तर गणी, गणधर, गणावच्छेदक और अन्य साधुओं को शय्या-संस्तारक के लिए स्थान ग्रहण करना चाहिए / __ यहां इतना और विशेष बताया गया है कि नवदीक्षित या अल्प आयु वाले साधु को रत्नाधिक साधु के समीप सोने का स्थान देना चाहिए, जो रात में उसकी सार-सम्भाल कर सके। इसी प्रकार वैयावृत्य करने वाले साधु को ग्लान साधु के समीप स्थान देना चाहिए, जिससे वह रोगी साधु की यथासमय परिचर्या कर सके। तथा शास्त्राभ्यास करने वाले शैक्ष साधु को उपाध्याय प्रादि, जिसके समीप वह अध्ययन करता हो, के पास स्थान देना चाहिए जिससे कि वह जागरणकाल में अपने पाठ-परिवर्तनादि करते ममय उनसे सहयोग प्राप्त कर सके / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org